Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 96
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/९४ जो बुद्धिमान श्रावक परिग्रह को एकदेश छोड़ कर परिमाण करता है, उसकी परीक्षा करने के लिए बहुत लक्ष्मी स्वयं उसके घर आती है। कदाचित् सूर्य से शीतलता मिल जाय, लेकिन ममता रूप परिग्रह भाव से जीव को कभी शान्ति नहीं मिलती। .. जिस प्रकार पशु को नग्न रहने पर भी ममत्व रूप परिग्रह के त्याग बिना शान्ति या पुण्य नहीं मिलता, उसी प्रकार जिसे परिग्रह की मर्यादा का कोई नियम नहीं- ऐसा धर्म रहित जीव शान्ति या पुण्य नहीं पाता । परिग्रह की तीव्र मूर्छा से वह पाप बाँध कर दुर्गति में रखड़ता है । धर्म के बगीचे को खा जाने वाला विषयासक्त मन रूपी हाथी नियम रूप अंकुश से वश में रहता है । इसलिए हे जीव ! तम सन्तोष पाने के लिए परिग्रह-परिमाण का नियम करो । परिग्रह के लोभ वश जीव न्याय-मार्ग छोड़कर अनेक पाप करता है, दया रहित होकर झूठ बोलता है, चोरी करता है, आर्तध्यान करता है । तीव्र लोभी मनुष्य को देव-गुरु-धर्म का और पुण्य-पाप का विवेक नहीं रहता, गुण-अवगुण को वह जानता नहीं, लोभ वश वह गुणी जनों का अनादर और दुर्गुणी जनों का आदर करता है, देश-परदेश घूमता है, माया-कपट करता है। लोभी पुरुष की आशा सम्पूर्ण संसार में ऐसी फैल जाती है कि यदि जगत का सम्पूर्ण धन उसे मिल जाय, फिर भी उसका लोभ शान्त नहीं होता । जिस जीव के विषयों में सुख बुद्धि छूटकर चैतन्य सुख का स्वाद आया हो, उस जीव के परिग्रह का लोभ सच में छूटता है। अरे, धन की प्राप्ति अनेक दुःखों को देती है, प्राप्त धन की रक्षा भी दुःख से होती है और वह धन चला जाता है, तब भी दुःख ही देता है । इस प्रकार सर्वथा दुःख की कारणभूत धन की ममता को धिक्कार है। हे जीव ! तू धन का लोभ घटाने के लिए धर्म-प्रभावनार्थ उसका दान कर.......यही उत्तम मार्ग है । दान बिना गृहस्थपना तो परिग्रह के

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