Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 95
________________ 5 परिग्रह-परिमाण व्रत जगत को शान्ति देने वाले और स्वयं शान्त स्वरूप सोलहवें भगवान शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ। जो बुद्धिमान श्रावक लोभ कषाय दूर करके सन्तोष पूर्वक परिग्रह की मर्यादा का नियम करता है, उसे पाँचवा परिग्रह-परिमाण व्रत होता है। गृहस्थों को पाप का आरम्भ घटाने के लिए परिग्रह का परिमाण करना चाहिये । खेती, घर, धन, स्त्री, वस्त्र आदि सम्पत्ति ममत्व बढ़ाने .. वाली है तथा उससे त्रस-स्थावर अनेक जीवों की हिंसा होती है, इसलिए सन्तोष को सिद्ध करने हेतु और अहिंसा का पालन करने हेतु हे भव्य! परिग्रह की ममता घटा कर उसकी मर्यादा का नियम कर । लोभ में आकुलता है और सन्तोष में सुख है । सन्तोषी जीव जिस पदार्थ को चाहता है, वह तीन लोक में कहीं भी हो तो भी उसे प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार माँगने वाले को कभी अधिक धन नहीं मिलता, भिखारी को तो क्या मिले ? उसी प्रकार लोभ से अधिक द्रव्य की इच्छा करने वाले लोभी को इसकी प्राप्ति नहीं होती। निस्पृह जीवों को तो बिना माँगे धन का ढेर मिल जाता है । सन्तोष धारण करने वाले को धन वगैरह पुण्य योग से स्वयमेव आ जाता है । पुण्य के उदय अनुसार लक्ष्मी आती-जाती है, इसलिए हे जीव ! तू लोभ/तृष्णा छोड़ कर सन्तोष रूप अमृत का पान कर तथा । शक्ति अनुसार दान आदि शुभ कार्य कर । लक्ष्मी पुण्य से आती है, बिना पुण्य के मात्र इच्छा करने से वह आती नहीं । जिसने चैतन्य की निज सम्पदा को जान कर बाहर की सम्पदा का मोह छोड़ा है- ऐसे धर्मात्मा को ही लोक में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि पदों की विभूति मिलती है ।

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