Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/७४ ... सत्य अमृत तुल्य है, उससे धर्म की प्राप्ति होती है । अहो, इस जगत में सर्व जीवों को सुख देने वाला, सभी का भला करने वाला और प्रशंसनीय सत्य वचन रूपी अमृत विद्यमान है तो फिर भला ऐसा कौन बुद्धिमान होगा ? जो झूठा, कठोर और निंद्य वचन बोलना उचित समझेगा ? अरे! वीतरागी वचन तो शान्त रस से भरे हुए हैं......वही सत्य हैं।
हे मित्र ! प्राण जाने का प्रसंग आ जावे तो भी तू निंद्य, धर्मविरुद्ध तथा कषाय के पोषक कठोर वचन नहीं बोलना । जो वचन कर्कश, कठोर और बुरे हैं, जो पाप के उपदेश से भरे हुए हैं और धर्म से रहित हैं; तथा जो वचन क्रोध उत्पन्न करने वाले हैं, जो जीवों को भय उत्पन्न करने वाले हैं, जो विषय-कषाय के पोषक हैं, जो देवगुरु-धर्म में दोष लगाने वाले हैं, जो शास्त्र-विरुद्ध हैं, धर्म-विरुद्ध हैं तथा देश-विरुद्ध हैं; जो नीच लोगों द्वारा ही बोले गये हैं- इत्यादि ऐसे सर्व प्रकार के असत्य वचनों को हे मित्र! तू सर्वथा छोड़ दे, मरण आये तो भी ऐसे निंद्य-असत्य वचन नहीं कहना ।
__ असत्य वचन बोलने से जीवों का. किस प्रकार बुरा होता है, इसे हम वसुराजा की कहानी से समझेंवसुराजा की कहानी:--
स्वस्तिकावती नाम की एक सुन्दर नगरी थी। उसके राजा का नाम विश्वावसु था । विश्वावसु की रानी का नाम श्रीमती था । उनका एक वसु नाम का पुत्र था ।
वहीं एक क्षीरकदम्ब गुरु रहता था, वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था । जिनेन्द्र भगवान का वह भक्त था और पूजा-विधान इत्यादि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थों के लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी पत्नि का नाम स्वस्तिमती था । उनका पर्वत नाम का एक पुत्र था। दुर्भाग्य से वह पापी और दुर्व्यसनी था।