Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानिया भाग-८/८३ उपभोग के लिए भी चोरी का पाप करता है तो भी उस पाप का फल भोगने नरक में तो अकेला ही जाता है । जिसके लिए चोरी की, वह कुटुम्ब कोई साथ में नहीं जाता- इसे समझ कर हे भव्य ! तू विष समान पाप-क्लेश तथा अपयश के कारण रूप चोरी को छोड़.....। हरण करना छोड़ और सन्तोष पूर्वक अचौर्य व्रत का पालन कर । अरे ! दूसरों के द्वारा चुराये हुए धन को भी तू अपने घर में मत रख ।
- अचौर्य व्रत का पालन करने में वारिषेण राजपुत्र तो प्रसिद्ध हैं ही, तथापि चोरी करके दुर्गति में जाने वाले श्रीभूति पुरोहित का यहाँ व्याख्यान करना प्रसंगोचित होगा । श्रीभूति पुरोहित की कहानी:
सिंहपुर नाम का सुन्दर नगर था । उसका राजा सिंहसेन था। सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था । राजा बुद्धिमान और धर्मपरायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । उस राज्य के पुरोहित का नाम श्रीभूति था । . - श्रीभूति ने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रखी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपटी के विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे, परन्तु उसके कपट का पता किसी को नहीं लग पाता था ।
ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुल में आ फँसा । उसका नाम समुद्रदत्त था । समुद्रदत्त की इच्छा व्यापरार्थ विदेश जानें की हुई। उसके पास बहुत कीमती रत्न थे । उसने श्रीभूति की प्रसिद्धि सुन रखी थी । इसलिए उसके पास वे पाँच रत्न रख कर वह व्यापारार्थ रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया । वहाँ कई दिनों तक ठहर कर उसने बहुत धन कमाया । जब वह वापिस लौट कर जहाज से अपने देश की ओर आ रहा था, तब पाप कर्म के उदय से उसका जहाज एक