Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/८६
बात असल में यह थी कि रानी ने पुरोहितजी की जीती हुई अँगूठी देकर दासी को पत्नि के पास समुद्रदत्त के रत्न लेने को भेजा, पर जब पुरोहितजी की पत्नि ने अंगूठी देख कर भी रत्न नहीं दिये, तब यज्ञोपवीत जीत लिया और उसे दासी के हाथ देकर फिर भेजा । अबकी बार रानी का मनोरथ सिद्ध हुआ । पुरोहितजी की पत्नि ने दासी की बातों से डर कर झटपट रत्नों को निकाल दासी के हवाले कर दिया । दासी ने रत्न लेकर रानी को दे दिये ।
रानी ने रत्न लेकर महाराज के सामने रख दिये । महाराज ने उसी समय श्रीभूति पुरोहित को गिरफ्तार करने की सिपाहियों को आज्ञा दी । बेचारे पुरोहितजी अभी महल के बाहर भी नहीं जा पाये थे कि सिपाहियों ने जाकर उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबार में लाकर उपस्थित कर दिया । राजा ने समुद्रदत्त को बुलाया और उससे उसके रत्नों को अन्य रत्नों के साथ पहचानने के लिए कहा। समुद्रदत्त ने अपने रत्न पहचान लिये ।
पुरोहितजी की ऐसी कपट नीति को देख कर महाराज बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने पुरोहितजी के लिए तीन प्रकार की सजायें नियत कीं। उनमें से जिसे वह पसन्द करे, उसे स्वीकार करने को कहा। वे सजायें थीं— १ . इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाये तथा इसको देश-निकाला दे दिया जाय । २. पहलवानों के द्वारा बत्तीस मुक्के इस पर पड़ें । ३. थाली में भरे हुए गोबर को यह खा जाय ।
श्रीभूति ने मुक्के खाना पसन्द किया । लेकिन दस-पन्द्रह मुक्के खाने पर पुरोहितजी की अकल ठिकाने आ गई । वे एकदम चक्कर खाकर ऐसे गिरे कि उठे ही नहीं । महा आर्तध्यान से उनकी मृत्यु होने से वे दुर्गति में गये ।
इसलिए जो भव्य पुरुष हैं, उन्हें उचित है कि वे चोरी को अत्यन्त दुःख का कारण समझ कर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धि को पवित्र जिनधर्म की ओर लगावें, जो ऐसे महापापों से बचाने वाला है ।