Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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- जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/६३ निरतिचार सम्यक्त्व के धारक को तीन लोक में अलभ्य क्या है? जगत में कुछ भी उसे अलभ्य नहीं ।
सम्यग्दर्शन के प्रताप से मुनियों को ऐसा मोक्ष सुखं मिलता है जो स्वयंभू है आधारभूत ऐसे इन्द्रिय-विषयों से जो पार है, देहादि भार से जो रहित है, उपमा रहित है, अत्यन्त सारभूत है और संसार-सागर से पार है, रोग-जन्म-शंका-बाधा आदि उसमें नहीं हैं ।
अहो, यह सम्यग्दर्शन सकल सुख का निधान है, स्वर्ग-मोक्ष का द्वार है, नरक गृह को बन्द करने वाला दरवाजा है, कर्म रूपी हाथी का नाश करने के लिए सिंह जैसा है, दुरित वन को छेदने वाली कुल्हाड़ी है और समस्त सुख की खान है । समस्त प्रकार के सन्देह से रहित ऐसे सम्यक्त्व को हे भव्य ! तू भज!!
इसलिए हे मित्र ! कर्म रूपी पर्वत को चूर-चूर करने के लिए वज्रपात के समान, दु:ख रूपी दावानल को शान्त करने के लिए घमासान मेघ के समान, सारभूत ऐसे मोक्ष सुख को देने वाला और गुणों का घर- ऐसा यह सम्यग्दर्शन है, उसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए तू भज!
, अहो ! यह सम्यग्दर्शन मोक्ष फल को देने वाला सच्चा कल्पवृक्ष है, जिनवर-वचन की श्रद्धा इसका मूल है, तत्त्व-श्रद्धा इसका मजबूत आधार है, समस्त गुणों की उज्ज्वलता रूप जल-सिंचन से वर्द्धमान है, चारित्र उसकी शाखायें हैं, सभी समितियाँ उसके पत्र-पुष्प हैं और मोक्षसुख रूपी फल के लिए वह लालायित हो रहा है । इस प्रकार यह सम्यग्दर्शन सर्वोत्तम कल्पवृक्ष है । अहो जीवो ! उसका सेवन करो !
इस कल्पवृक्ष की महान छाँव लेने वाला भी महा भाग्यवान है।
जो ऐसे सर्वगुणसम्पन्न अजोड़ सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं, वे उत्तम पुरुष धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, वे ही सार-असार का विचार करने में चतुर हैं, पाप शत्रु का विध्वंस करने वाले हैं और वे ही सभी सुख भोग कर मुक्ति-महल जाते हैं, तीन लोक में पूज्य हैं; अत: हे भव्य जीवो! आप भी इस सम्यक्त्व को आज ही धारण करो!