Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 68
________________ अहिंसा व्रत . सर्व जीवों के प्रति दया रूप अहिंसा को गणधर देव ने व्रतों की जननी कहा है । पाँचों व्रत अहिंसा रूपी माता के ही पुत्र हैं । - अहिंसा माता, माता के समान सर्व जीवों का हित करने वाली है तथा वह अनेक गुणों की जन्मभूमि है, सुख करने वाली है और सारभूत सर्व गुणों की दातार है, वह सुख की निधान और रत्नत्रय की खान है। . सद्धर्म रूपी बगीचा खिला कर, उसमें स्वर्ग-मोक्ष का फल लगाने के लिए तथा दुःख-दाह दूर करके, शीतल शान्ति की छाया देने के लिए, इस अहिंसा को भगवान ने उत्तम मेघ-वर्षा के समान कहा है । मुक्ति की सखी ऐसी इस अहिंसा का मुनिराज भी सेवन करते हैं । मुनि तथा श्रावक सभी को सकल व्रतों में एकमात्र इस अहिंसा व्रत का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि अहिंसा का पालन करने वाले के द्वारा सभी व्रतों का पालन सहज रूप से हो जाता है । इसके बिना व्रत-तप आदि एक के बिना शून्य के समान हैं । अरे रे ! दया बिना जीव........किस काम का ? - ___ अहिंसा रूप वीतराग भाव ही सिद्धान्त का सर्वस्व है, यही चारित्र का प्राण है और धर्मवृक्ष का मूल है । ..कदाचित् सर्प के मुख से अमृत निकले और कदाचित् रात्रि में सूर्य उगे, परन्तु हिंसा से तो कदापि धर्म नहीं होता । “हे श्रावकोत्तम ! अहिंसा व्रत का पालन करने के लिए, तत्काल छना हुआ पानी ही उपयोग करना चाहिए । सड़ा हुआ या

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