Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जन धर्म की कहानियाँ भाग-८/६१ जीव कदाचित् उसे छोड़ दे तो भी अल्प काल में अवश्य (फिर से सम्यक्त्वादि ग्रहण करके) मुक्ति पाता है ।
जिस भव्य जीव को सम्यक्त्व होता है, उसके हाथ में चिन्तामणि होता है, उसके घर में कल्पवृक्ष और कामधेनु होते हैं ।
. इस लोक में निधान के समान जैसे सम्यक्त्व भव्य जीवों को सुख-दाता है, वह सम्यक्त्व जिन्होंने प्राप्त किया है, उनका जन्म सफल है।
जो जीव हिंसा छोड़ कर, वन में जाकर अकेले रहते हैं और ठंडी-गर्मी आदि सहन करते हैं; परन्तु सम्यग्दर्शन के बिना हैं, वे तो . वन में खड़े पेड़ के समान होते हैं ।
सम्यक्त्व के बिना जीव दान-पूजा-व्रतादि रूप किंचित् करते हैं, वे सभी विफल हैं..... विरुद्ध फल वाले हैं ।
दृष्टिहीन जीव अनेक व्रत-दानादि पुण्य करके, उसके फल में इन्द्रिय भोगों को पाकर पश्चात् भव-अरण्य में भ्रमण करते हैं।
सम्यक्त्व के बल से जिन कर्मों का सहज में नाश हो जाता है, वे कर्म सम्यक्त्व बिना घोर तपश्चरण से भी नाश नहीं होते ।।
सम्यक्त्वादि से विभूषित गृहस्थपना भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह व्रतदानादि से संयुक्त है और भविष्य में निर्वाण का कारण है।
मुनिव्रत सहित, सर्व संग रहित, देवों से पूज्य- ऐसा जिनरूप भी सम्यग्दर्शन बिना नहीं शोभता, वह तो प्राण बिना सुन्दर शरीर के समान है।
दर्शन रहित जीव कभी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता । यदि सम्यक्त्व से अलंकृत जीव कदाचित् चारित्रादि से च्युत हो जाय तो भी फिर से चारित्र पाकर मोक्ष पा सकता है।
जिस प्रकार नेत्र-हीन जीव रूप को नहीं जान सकता, उसी प्रकार सम्यक्त्व-चक्षु के बिना अन्धा जीव देव-गुरु को या गुण-दोषों को नहीं .. जानता ।