Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२५ सुखों की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करने वाली वह अनन्तमती नि:कांक्ष भावना के दृढ़ संस्कार के बल से मोह-बन्धन को तोड़ कर वीतराग धर्म की साधना में तत्पर हो गई थी । पश्चात् उसने पद्मश्री आर्यिका के समीप दीक्षा अंगीकार करली और धर्म ध्यान पूर्वक समाधि मरण करके स्त्री पर्याय को छेदकर बारहवें देवलोक में महर्द्धिक देव हुई । अज्ञान अवस्था में लिए हुए शीलव्रत को भी जिसने दृढ़ता पूर्वक पालन किया और स्वप्न में भी संसार - सुख की तथा अन्य किसी ऋद्धि की कामना न करते हुए आत्मध्यान किया, उस अनन्तमती को देवलोक की प्राप्ति हुई । देवलोक के आश्चर्यकारी वैभव की तो क्या बात! परन्तु निःकांक्षता को लिए वहाँ पर भी उदासीन रहकर वह अनन्तमती अपना आत्महित साध रही है । धन्य है ऐसी नि:कांक्षता को, धन्य है ऐसे नि:कांक्षित अंग को !! [ यह कहानी संसार - सुख की आकांक्षा छोड़ कर आत्मिक सुख की साधना में तत्पर होने की हमें शिक्षा देती है । जिस तरह चक्रवर्ती की सम्पदा को छोड़कर झोपड़ी ग्रहण करना मूर्खता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन एवं व्रतादि रत्नों को छोड़कर विषय-भोगों को ग्रहण करना भी महान मूर्खता है]

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100