Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 43
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग -८/४१ पुष्पडाल के मन में विचार आया कि गाँव तो अब पीछे छूट गया है और वन भी आ गया है। मुनिराज मुझे रुकने को कहेंगे तो मैं अपने घर वापस चला जाऊँगा, परन्तु मुनि महाराज आगे बढ़े ही जा रहे थे.... मित्र को वापिस जाने को उन्होंने कहा ही नहीं । + "" पुष्पडाल को घर जाने की आकुलता होने लगी । उसने मुनिराज को याद दिलाने के लिए कहा- हे महाराज ! जब हम छोटे थे, तब इस तालाब पर आते थे और आम के पेड़ के नीचे साथ-साथ खेलते थे, यह पेड़ गाँव से दो-तीन मील दूरी पर है से बहुत दूर आ गये हैं ।” .. हम गाँव यह सुन कर भी वारिषेण मुनि ने उसे वापस जाने को नहीं कहा । अहो, परम हितैषी मुनिराज मोक्ष का मार्ग छोड़ कर संसार में जाने को क्यों कहेंगे ? उन्हें लग रहा था कि मेरा मित्र भी मोक्ष के मार्ग में मेरे साथ चले । मानों वे मन ही मन अपने मित्र से कह रहे हों― हे मित्र ! चल..... मेरे साथ मोक्ष में, छोड़ परभाव को.... झूल आनन्द में। हमें जाना है मोक्ष में..... सुख के धाम में, चल मेरे भाई.... अब तू मैं साथ में ।। अहा ! मानो अपने पीछे-पीछे चलने वाले को मोक्ष में ही ले 'जा रहे हों- ऐसी परम निस्पृहता से मुनि तो आगे ही चल रहे थे। पुष्पडाल भी शर्म के मारे उनके पीछे-पीछे चल रहा था । अन्त में वे आचार्य महाराज के पास आ पहुँचे । वारिषेण मुनि ने उनसे कहा "प्रभो ! यह मेरा पूर्व का मित्र है और संसार से विरक्त होकर आपके पास दीक्षा लेने आया है। " आचार्य महाराज ने उसे निकट भव्य जान कर दीक्षा दे दी। अहा, सच्चा मित्र तो वही है, जो जीव को भव - समुद्र से बचाये। अब, मित्र के अनुग्रह वश पुष्पडाल भी मुनि हो गये थे और बाहर में मुनि के योग्य क्रिया करने लग गये थे, परन्तु उनका चित्त अभी संसार से छूटा नहीं था । भाव - मुनिपना अभी उन्हें हुआ नहीं था । प्रत्येक

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