Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 40
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/३८ बुला कर उसे प्रेम से समझाते हैं, जिससे उसका दोष दूर हो और धर्म की शोभा बढ़े । । उसी प्रकार जब सभी लोग चले गये, तब बाद में जिनभक्त सेठ ने भी उस सूर्य नामक चोर को एकान्त में बुला कर उलाहना दिया और कहा- "भाई! ऐसा पाप कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता । विचार तो कर कि तू यदि पकड़ा जाता तो तुझे कितना दुःख भोगना पड़ता? तथा इससे जैनधर्म की भी कितनी बदनामी होती । लोग कहते कि जैनधर्म के त्यागी ब्रह्मचारी भी चोरी करते हैं । इसलिए इस धन्धे को तू छोड़ दे ।" वह चोर भी सेठ के ऐसे उत्तम व्यवहार से प्रभावित हुआ और स्वयं के अपराध की माफी मांगते हुए उसने कहा – “सेठजी आपने ही मुझे बचाया है, आप जैनधर्म के सच्चे भक्त हो । लोगों के समक्ष आपने मुझे सज्जन धर्मात्मा कह कर पहचान करायी, अत: मैं भी चोरी छोड़ कर सच्चा धर्मात्मा बनने का प्रयत्न करूँगा । सच में जैनधर्म महान है और आपके जैसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही वह शोभा देता है ।" . . इस प्रकार उस सेठ के उपगूहन गुण से धर्म की प्रभावना हुई। [ यह कहानी हमें यह सिखाती है कि साधर्मी के किसी दोष के कारण धर्म की निन्दा हो- ऐसा नहीं करना चाहिये । अपितु प्रेम पूर्वक समझा कर, उसे उस दोष से छुड़वा कर, धर्मात्माओं के गुणों को मुख्य करके, उसकी प्रशंसा द्वारा धर्म की वृद्धि हो- ऐसा करना चाहिए । गुण-दोष का निर्णय तो विवेक ही करता ही। अत: श्रद्धा विवेकपूर्वक हो, तभी सार्थक एवं शुभफलदायी होती है। भावभासन बिना जो श्रद्धा होगी, वह अंधी ही होगी। . - सत्य की खोज, पृष्ठ ८१

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