Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/३३
"श्रीकृष्ण आदि नौ विष्णु (वासुदेव) होते हैं और वे तो चौथे काल में हो चुके, दसवाँ विष्णु या नारायण होता नहीं । इसलिए अवश्य ये सब बनावटी हैं, क्योंकि जिनवाणी मिथ्या नहीं होती ।" इस प्रकार जिनवाणी की दृढ़ श्रद्धा पूर्वक अमूढदृष्टि अंग से वह जरा भी विचलित नहीं हुई ।
तीसरे दिन वहाँ एक नई बात हुई । ब्रह्मा और विष्णु के बाद आज तो पार्वती सहित जटाधारी महादेव शंकर प्रगटे । गाँव के बहुत लोग उनके दर्शन करने चल दिये, कोई भक्ति से गया तो कोई कौतुहल से गया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वीतराग देव बसे हैं—- ऐसी रेवती रानी पर तो कुछ भी असर नहीं हुआ, उसे कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ, उल्टे उसे तो लोगों पर दया आई। रेवती रानी सोचने लगीं— " अरे रे ! परम वीतराग सर्वज्ञ देव, मोक्षमार्ग को दिखाने वाले भगवान को भूल कर मूढ़ता से लोग इन्द्रजाल में कैसे फँस रहे हैं ! सच में, भगवान अरहन्त देव का मार्ग प्राप्त होना जीवों को बहुत दुर्लभ है। " अहो आश्चर्य! अब चौथे दिन तो मथुरा के विशाल प्रांगण में साक्षात् तीर्थंकर भगवान प्रगट हुए.... अद्भुत समवसरण की रचना, गंधकुटी जैसा दृश्य और उसमें चतुर्मुख सहित विराजमान तीर्थंकर भगवान लोग फिर दर्शन करने दौड़े ।
राजा ने सोचा- इस बार तो तीर्थंकर भगवान आये हैं, इसलिए रेवती रानी अवश्य जायेगी । परन्तु रेवती रानी ने कहा - "हे महाराज ! अभी इस पंचम काल में तीर्थंकर कैसे ? भगवान ने इस भरत क्षेत्र में एक काल खण्ड में चौबीस तीर्थंकर होने का ही विधान कहा है और वे ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर मोक्ष चले गये हैं । यह पच्चीसवाँ तीर्थंकर कैसा ? यह तो कोई कपटी का मायाजाल है । मूढ़ लोग देव के स्वरूप का विचार किये बिना ही एक के पीछे एक दौड़े चले जा रहें हैं ।"
बस, परीक्षा हो चुकी । विद्याधर राजा को निश्चय हो गया कि रेवती रानी की जो प्रशंसा श्री गुप्ताचार्य ने की थी, वह यथार्थ ही है । यह तो सम्यक्त्व के सर्व अंगों से शोभायमान है