Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ _ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/१६ निर्विकल्प अनुभव रूप आत्मविद्या की साध नहीं सकता, उसी प्रकार मन्त्र के सन्देह में झूलता हुआ वह माली मन्त्र सिद्ध नहीं कर सका । . इतने में अंजन चोर भागते-भागते वहाँ पहुँचा । माली को ऐसी विचित्र क्रिया करते हुए देखकर उसने पूछा- "अरे भाई ! ऐसी अन्धेरी रात में तुम यह क्या कर रहे हो?" सोमदत्त माली ने उसे सब बात बताई, उसे सुनते ही अंजन चोर का पंच णमोकार मन्त्र पर परम विश्वास बैठ गया। उसने माली से कहा- “लाओ, मैं इस मन्त्र को सिद्ध करता हूँ।" .. ऐसा कहकर श्रद्धापूर्वक मन्त्र बोल कर निःशंकपने सीके की रस्सी. उसने काट दी........। अहो आश्चर्य! नीचे गिरने के पहले ही देव-देवियों ने उसे ऊपर ही झेल लिया........ और कहा- “मन्त्र के ऊपर तुम्हारी नि:शंक श्रद्धा से तुम्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो गई है, उसकी वजह से आकाशमार्ग से तुम्हें जहाँ भी जाना हो, जा सकते हो ।" - तब से अंजनचोर चोरी करना छोड़ कर जैनधर्म का परम भक्त बन गया, वह कहने लगा- “जिनदत्त सेठ के प्रताप से मुझे यह विद्या प्राप्त हुई है । जिस प्रकार वे भगवान के दर्शन करने के लिए जहाँ जाते हैं, वहाँ जाने की मेरी इच्छा हुई है और वहाँ जाकर वे जो करते हैं, वैसा ही करने की मेरी इच्छा है ।" • [भाईयो, यहाँ यह बात विशेष ख्याल में लेना है कि अंजन चोर.को आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई तो उसे चोरी का धन्धा करने के लिए उस विद्या का उपयोग करने की दुर्बुद्धि नहीं हुई, परन्तु जिनबिम्बों के दर्शन इत्यादि धर्मकार्य में उसका उपयोग करने की सद्बुद्धि सूझी। यह बात उसके परिणाम पलटने की सूचना देते हैं और इसप्रकार धर्मरुचि के बल से आगे चल कर वह सम्यग्दर्शन पा सकता है । विद्या सिद्ध होने पर अंजन ने विचार किया- "अहो ! जिस

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100