Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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नि:कांक्षित अंग में प्रसिद्ध अनन्तमती की कहानी भाँति-भाँति के कष्ट सहे भी, जिसका मिलना कर्माधीन। जिसका उदय विविध दुःखयुत है, जो है पाप-बीज अतिहीन।। जो है अन्त सहित लौकिक-सुख, कभी चाहना नहिं उसको। 'निःकांक्षित' यह अंग दूसरा, धारे 'अनन्तमती' इसको॥
__ अनन्तमती चम्पापुरी के प्रियदत्त सेठ की पुत्री थी तथा उसकी माता का नाम अंगवती था । अनन्तमती को अपने माता-पिता द्वारा उत्तम संस्कार विरासत में ही मिले थे; क्योंकि उनके माता-पिता एक जिनमत तथा संसार के विषयों से विरक्तचित्त सद्गृहस्थ थे।
अनन्तमती सात-आठ वर्ष की बाल्यावस्था में जब अन्य बालकबालिकाओं के साथ खेलकूद किया करती थी । तब एक बार अष्टाह्निका के समय उनके नगर में धर्मकीर्ति मुनिराज पधारे । उन्होंने सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का उपदेश दिया । नि:कांक्षित अंग का उपदेश देते हुए उन्होंने कहा
"हे जीवो! संसार के सुख की आकांक्षा छोड़ कर आत्मा के धर्म की आराधना करो । धर्म के फल में जो संसार-सुख की इच्छा करता है, वह अज्ञानी है। सम्यक्त्व के या व्रत के बदले में मुझे देवों की अथवा राज्य की विभूति मिले- ऐसी जो इच्छा है, वह तो संसार-सुख के बदले में सम्यक्त्वादि धर्म को बेचता है, यह तो छाछ के बदले में रत्नचिन्तामणि को बेचने जैसी मूर्खता है। अहा! स्वयं के चैतन्य-चिन्तामणि को जिसने देखा है, वह बाह्य-विषयों की आकांक्षा क्यों करे?"
अनन्तमती के माता-पिता भी मुनिराज का उपदेश सुनने के लिए आये थे और अनन्तमती को भी साथ में लाये थे । उपदेश के पश्चात् . उन्होंने आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और मजाक में अनन्तमती से कहा- “तू भी ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर ले।''