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जैन धर्म हसधर्म, या यतिधर्म आदि के नाम से की गई है और जहाँ-जहाँ खण्डन किया गया, वहाँ जैनधर्म या पाखडधर्म नाम का उल्लेख हुआ है।
पद्मपुराण मे जैनधर्म का खडन किया गया है, फिर भी उस खंडन से जैनधर्म के आन्तरिक स्वरूप का बोध हो सकता है। पद्मपुराण का भूमिखड तथा राजा वेणु का वर्णन ध्यान देने योग्य है।
ऋषियो ने पूछा -~-"सूत जी! राजा वेणु की उत्पत्ति जव महात्मा से हुई तो उसने वैदिक धर्म का परित्याग क्यो कर दिया ?"
सूत जी बोले-“मैं तुम्हे सारी कहानी सुनाता हूँ । जव वेणु शासन करता था, उस समय उसके दरबार मे नंग-धडग, विशालकाय, श्वेतमस्तक वाला अतिशय कान्तिमान् साधु ओघा, कमण्डल लिए जा पहुचा।" (पुराणो से जैन साधु के वेप के सम्बन्ध मे भी पर्याप्त परिचय मिलता है। पद्मपुराण से जैन साधु के दिगम्बरत्व का पता चलता है। शिवपुराण के "तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः" अर्थात्-~-"मुख पर वस्त्र धारण करने वाले", इस उल्लेख से स्थानकवासी साधु के वेष का और महाभारत के उत्तुंक के स्पष्टीकरण से श्वेताम्बर साधु के वेप का समर्थन होता है । जान पड़ता है, पुराणकाल मे जैन साधुनो के तीनों वेष निश्चित हो चुके थे।)
वेणु ने पूछा-"पाप कौन है ?"
साधु ने उत्तर दिया--"मै अनन्त शक्तिमय, ज्ञान-सत्यमय आत्मा हूँ। सत्य और धर्म मेरा कलेवर है। योगी मेरे ही स्वरूप का ध्यान करते है। मै जिन स्वरूप हूँ।"
राजा ---"आपका देव, गुरु और धर्म क्या है ?"
साधु .-"अरिहन्त हमारे देव है, निर्ग्रन्थ हमारे गुरु है और दया ही हमारा धर्म है । मेरे धर्म मे वजन, याजन, वेदाध्ययन जैसा कुछ नही है। पितरो के तर्पण, वलिवैश्वदेव आदि कर्मो का त्याग है। हमारे धर्म में अर्हन् का ध्यान ही उत्तम माना गया है।"
___ मोह से मुग्ध मनुष्य श्राद्ध आदि करते है। मरने के बाद मृतात्मा कुछ खाता नही । ब्राह्मणों का खाया मृतात्मा को मिलता नही है ।
दया का दान करना ही सर्वश्रेष्ठ है। राजन् ! इन मिथ्या कर्मो को त्याग कर जीवो की रक्षा कर, दयापरायण होकर प्रतिदिन जीवो की रक्षा कर। ऐसी