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सम्यग्ज्ञान प्रसूनो की वृष्टि की है । तीर्थङ्कर के प्रधान शिष्य गणधर देव अपने बुद्धिपट में उन कुसुमो को झेलते है और प्रवचन-माला गूंथते है । यह प्रवचनमाला जैन परम्परा मे पागम-प्रमाण के रूप मे स्वीकार की गई है।
जव तर्क थक जाता है, लक्ष्य अस्थिर होकर डगमगाने लगता है और चित्त मे चचलता उत्पन्न हो जाती है, तो आद्यप्रणीत आगम ही मुमुक्षु जनो का एकमात्र अाधार बनता है। यह पागम ही द्रव्यश्रुत कहलाता है और द्रव्यश्रुत के सहारे उत्पन्न होने वाला ज्ञान भावभुत कहलाता है ।
१०. भेद-कर्तृ भेद से पागम दो भागो मे विभाजित किया जा सकता है। अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य । जिस श्रुत का साक्षात् तीर्थङ्कर भगवान् ने उपदेश दिया और जिसे अगाध मेधा एव बुद्धि के धारक गणधरो ने शब्द-वद्ध किया, वह अंगप्रविष्ट कहलाता है। अगप्रविष्ट का शब्दार्थ है-'अगो मे अन्तर्गत" अक्षर-पुरुष के बारह अग है, जिनके नाम ये है ~~
१ आचारांग २. सूत्रकृत ३ स्थान ४ समवाय ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञातृधर्मकथा ७ उपासकदशा ८. अन्तकृदशा ९. अनत्तरौपपातिक १०. प्रश्नव्याकरण ११ विपाक १२ दृष्टिवाद ।'
___ यह बारह अग समस्त जैनवाड्मय के मूलाधार है। इन्हे 'गणिपिटक' कहा गया है । इन अगसूत्रो के आधार पर, इनसे अविरुद्ध विभिन्न स्थविरो एवं आचार्यों द्वारा रचित पागम अगवाह्य कहलाता है। अंगवाह्य आगमो की सख्या निर्धारित नही की जा सकती; मगर उनकी प्रामाणिकता का आधार अग शास्त्र ही है।
जैनाचार्यों ने विपुल श्रुत की रचना की है। बारह उपागसूत्र, चार मूलसूत्र, चार छेदसूत्र, और आवश्यक सूत्र आदि आगम तो है ही, इनकी व्याख्या के रूप में भी चूणि, नियुक्ति और टीका आदि का प्रणयन किया गया है, जिसका बहुत वडा परिमाण है।
इसके अतिरिक्त भी बहुसंख्यक जैनाचार्यो ने आध्यात्मिक, और दार्शनिक साहित्य का स्वतत्र ग्रथो के रूप मे निर्माण किया है और आगम प्ररूपित सक्षिप्त तत्त्व का हृदयग्राही तर्कसंगत और विशद विवेचन किया है । जैनाचार्यो
१ नन्दीसूत्र ४४।