Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 210
________________ १९२ जैन धर्म मर्यादाओ का पालन करे तो संसार स्वर्ग बन सकता है, और प्रत्येक प्राणी के साथ बन्धुभाव स्थापित होने से पूर्व शान्ति का वायुमण्डन निर्मित हो सकता है । श्रावक के तीन प्रकार व्रतों का प्रणु प्राशिक रूप से पालन करना कहलाता है। किन्तु प्रत्येक गृहस्य की गुरूप साधना भी समान कोटि की नहीं हो सकती । आमिर अपनी क्षमता के अनुसार ही गृहस्थ इन व्रतो का पालन करनाता है, अतएव उसकी साधना में अनेक कोटिया हो जाना स्वाभाविक है । उन कोटि भेद के श्रावार पर श्रावक तीन प्रकार के होते है १. पाक्षिक, २ नैष्ठिक ३. साधक । जो एक देश से ( अंशत ) हिंसा का त्याग करके श्रावक धर्म ग्रगीकार करता है, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जब वह निर्दोष निरतिचार रूप से व्रत का पालन करने लगता है, तब नैष्ठिक कहलाता है । वही श्रावक जब पूर्ण रूप से देशचारित्र का पालन करता है और श्रात्मा की स्वरूपपरिस्थिति में लीन हो जाता है, तव सावक श्रावक कहलाता है । जीवन-नीति श्रावक और साधु दोनो ही मुमुक्षु होते है । दोनो आत्माशुद्धि के पथ के पथिक होते है । दोनो का उद्देश्य मुक्तिलाभ करना है। दोनो सयम की साधना में निरत रहते है और पाप से बचने का प्रयत्न करते है । फिर भी दोनो की परिस्थितियो मे अन्तर है । साबु सर्वथा अपरिग्रही और अनारभी समस्त पापकृत्यो के त्यागी होते हैं, किन्तु श्रावक गृहस्थ अवस्था में रहने के कारण ऐसा नही हो सकता । क्योकि उसका परिग्रह और आरम्भ अमर्यादित नही होता । जैनशास्त्रो मे महापरिग्रह और उसके लिए किया जाने वाला महारभ नरक गति का कारण बतलाया गया है । अतएव श्रावक की जीवन नीति ऐसी सरल और सादी होनी चाहिए कि वह ग्रत्पारभी और अल्पपरिग्रही रहकर ही अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर ले | श्रावक का दर्जा पाने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है । श्रावक परिग्रह की एक मर्यादा वाघ लेता है, जिससे वह तृष्णा पर अकुश लगा सके । उस मर्यादा को निभाने के लिए वह भोगोपभोग की वस्तुओ

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