Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 269
________________ २५३ जैन-शिष्टाचार को समझाया कि भाई, इस कुरुवश मे नो माधुग्रो का आदर होता आया है, किन्तु इस प्रकार का पापकारी कुकृत्य नहीं हुग्रा। पद्मराजा को दुग्व तो बहुत था,किन्तु वह वचनबद्ध था, अत उसने अपनी विवगता बताई। विष्णुकुमार मनि वलि के पास पहुंचे और उससे मुनि मघ के निए स्थान मांगा। बलि ने कहा कि अच्छा मै ढाई कदम जगह देता हूँ, उसमे ग्ह लो। इन पर विष्णकुमार जी को रोप हुआ और अपनी शक्ति का चमत्कार उन्होंने वहां प्रगट किया, और एक पैर सुमेरू पर्वत पर रखा और दूसरा मानुपोत्तर पर्वत पर, और तीमग कदम बीच मे लटकने लगा। यह देख कर पृथ्वीवामी जन अन्यन्न भव्य हो गए, बलि क्षमा मांगने लगा, गज्य उमने वापस कर दिया, और ममचा मंकट टल गया। मुनिजनो पर संकट पाया देख कर लोगो ने अन्न-जल का त्याग कर दिया था। मंकट टलने पर मनि जब घर नही आये तो लोग भोजन कैसे करे। यात मौ मुनि जितने घर आ सकते थे, उतने घर गये और बाकी ने श्रमणो का स्मरण कर, प्रतीक बना कर भोजन किया, अत उमी दिन से रक्षाबंधन के दिन दोनो ओर मनग्य का चित्र बना कर राग्वी बांधने की प्रथा चल पडी। इस प्रथा को आज भी उनभान्त में “मीन" कहते है मौन गब्द "श्रमण" का ही अपभ्रम है।' १. जैन धर्म" फैलाशचन्द्र शास्त्री।

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