Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 229
________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २११ ५. स्नातकनिम्रन्थ--जिनकी साधना फलित हो चुकी है, जो समस्त आत्मिक विकारो को नष्ट करके वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो चुके है, जिन्हे जीवन्मुक्त दशा प्राप्त हो चुकी है, वे अरिहन्त स्नातकनिम्रन्थ कहलाते है। प्रावश्यक क्रिया ____ चाहे अणुव्रती साधक हो, चाहे महानती, उसे अपनी साधना को अग्रसर करने के लिए नित्य नयी स्फति, और प्रेरणा मिलनी चाहिए। इससे साधना पीछे न हट कर आगे बढती जाती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जैनगास्त्रो मे कुछ नित्यकृत्यो का विधान है। जिन्हे श्रावक और साधु दोनो करते है । वह नित्यकृत्य छह है । वह इतने आवश्यक माने गये है कि जैनशास्त्रो मे उन्हे आवश्यक नाम मे ही अभिहित किया गया है। उनका दिग्दर्शन यो है-- १ सामायिक-- राग-द्वपमय विचारो से चित्तवृत्ति को पृथक् करके मध्यस्थ भाव मे रहना सामायिक है। समस्त पापमय क्रियानो का त्याग करके दो घडी पर्यन्त समभाव के सरोवर मे अवगाहन करना श्रावक की सामायिक क्रिया है। साधु की सामायिक जीवन पर्यन्त रहती है। क्योकि साधु सदैव समभाव मे रमण करते है। २ स्तवन--तीर्थकरो के गुणो का कीर्तन करना । तीर्थकर देव आदर्श महापुरुप है। जिन्होने आत्मशुद्धि का चरम रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है । उनके गुणो के कीर्तन से, कीर्तन करने वाले को अपने निज के स्वाभाविक गुणो का परिचय एव स्मरण होता है । उन गुणो को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है और दृष्टि निर्मल होती है । ३ वन्दना---पूजनीय पुस्पो के प्रति मन, वचन, काय के द्वारा प्रादर प्रकट करना वन्दना है । पाच परमेष्ठी पूजनीय है। ४. प्रतिक्रमण--प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ है--पीछे फिरना, लोटना । तात्पर्य यह है कि प्रमाद के कारण शुभ सकल्प से विचलित होकर अशुभ सकल्प मे चले जाने पर पुन शुभ सकल्प की पोर आना प्रतिक्रमण कहलाता है । इस आवश्यक क्रिया मे अगीकार किए हुए व्रतो मे त्रुटिया, भूले हो गई हो, उनका चिन्तन करके पश्चात्ताप किया जाता है। १ आवश्यक सूत्र ।

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