Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 247
________________ SREESS.Oñcazosé "जत्ता ते भंसे! अवणिज्जं अव्वायाहं फासुग्रविहारं ?" "सोमिला ! जत्ता विसे, जयणिज्जं पि मे अव्यवाहं पि मे फासूयबिहारं पि मे । , 000000coocooooooogeb -- भगवती, श० १८, ३०१० १ "हे भते ! आपके धर्म मे यात्रा, यापनीय अव्यावाध प्रौर विहार है नया ?" ... " हे सोमिल, है ! तप, नियम, सयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि योगों में हमारी यत्ना की प्रवृत्ति ही हमारी यात्रा है ।" इन्द्रिय और कपायो को जीतना ही यापनीय है । वात, पित्त, कफ और सन्निपात रोगो की उपशान्ति और अशुभ कर्मो का उदय में नही आना ही अव्यावाध है । उद्यान, धर्मशाला, स्त्री- पशु रहित शुद्ध आसन ग्रहण करना ही हमारा प्रासुक विहार है । "हे सोमिल । सयम की प्राप्ति द्रव्य, नय और निक्षेप के ज्ञान-विज्ञान के बिना नही हो सकती ।" यही धर्म की विशेषता है । CODEC 08000....socccccpoisonspocop008Ecocoooo जैन-धर्म की विशेषताएँ

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