Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 251
________________ जैन धर्म को विशेषताएं कोई स्वभाव से वृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते है, कोई काल से, कोई नियनि मे और कोई यदृच्छा से । नृष्टि से पहले कौन-सा तत्त्व था, इस विषय मे भी विभिन्न दर्शनो मे मर्नक्य नहीं है। किसी के मन्तव्य के अनुसार सृष्टि से पहले जगत् असत् था"असहा इदमन ग्रासीत् ।" दूसरे कहते है-“सदेव सोम्येदमन ग्रासीत्" अर्थात् हे सौम्य । जगत् मृष्टि से पहले सत् था। किसी का कहना है--"आकाशः परायणम्" अर्थात् सृष्टि से पूर्व आकाश-तत्त्व विद्यमान था। कोई इस मन्तव्य के विरुद्ध कहते है :-- ___ "नयेह किञ्चनाग्र आसीत् ।" "मृत्युनवेदमावतमासीत्" सृष्टि से पहले कुछ भी नही या, सभी कुछ मृत्यु से व्याप्त था, अर्थात् प्रलय के समय नष्ट हो चुका था। अभिप्राय यह है कि जैसे सृष्टि-रचना के सबध मे अनेक मान्यताएँ है, उसी प्रकार सुप्टिपूर्व की स्थिति के सबध मे भी परस्पर विरुद्ध मन्तव्य हमारे समक्ष उपस्थित है। __ सृष्टिप्रक्रिया सबबी इन परस्पर विरुद्ध मन्तव्यो की आलोचना जैनदर्शन मे विस्तारपूर्वक की गयी है। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का अवकाश नही । तथापि यह समझने में कोई कठिनाई नही हो सकती कि इन कल्पनाओ के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नही है। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् सत् मान लिया जाय तो उसके नये सिरे से निर्माण का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जो सत् है वह तो है ही। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् एकान्त असत् था और असत् से जगत् की उत्पत्ति मानी जाये तो शून्य से वस्तु का प्रादुर्भाव स्वीकार करना पडेगा, जो तर्क और बुद्धि से असगत है। इसी प्रकार सृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया भी तर्कसंगत नही है। इस विषय मे जैन धर्म की मान्यता ध्यान देने योग्य है। जैन धर्म के अनुसार जड़ और चेतन का समूह यह लोक सामान्य रूप से नित्य और विशेष रूप से अनित्य है। जड और चेतन मे अनेक कारणो से विविध प्रकार के रूपान्तर होते रहते है। एक जड पदार्थ जब दूसरे जड पदार्थ के साथ मिलता है तब दोनो में रूपान्तर होता है, इसी प्रकार जड के सम्पर्क से चेतन मे भी रूपान्तर होता रहता है। रूपान्तर की इस अविराम परम्परा मे भी हम मूल वस्तु की सत्ता का अनुगम स्पष्ट देखते है। इस अनुगम की अपेक्षा से जड और चेतना अनादिकालीन है, और अनन्त

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