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जैन धर्म
५ पति-पत्नी सम्बन्धी-~-दम्पनि को पृथक पाया पर ही नहीं, अपितु पृथक्-पृथक् कक्षो मे गयन करना चाहिए। पत्नी जब पति के नमीर पानी है तो पति आदरपूर्ण मधुर गन्दी मे उसका स्वागन करना है । वैठने को महागन प्रभात करता है। क्योकि जैनागमो में पत्नी पति की "धम्मगहाया". अर्थात धर्मगहायिका मानी गई है। --उपासक दगाग ।
६ स्वामी-मेवक संबंधी--जैन शास्त्रो में मेवक का "कादम्बियपुरि" अर्थात् कौटुम्बिक पुरुप परिवार का ही मदद के रूप में उलला किया गया है। सम्राट भी अपने मेवक को "देवाणुपिया' कह कर मवाचन कन्ने है । देवाणपिया का अर्थ है-"देवो के प्यारे।" कितना प्रौदार्य, कितना माधुर्य है योग कितना स्नेह भरा हे, इन शब्दो में।
__ "देवाणुप्पिया" शब्द नबोधन का मामान्य शब्द है। स्वामी गवत को, सेवक स्वामी को, पति पत्नी को, पत्नी पति को और प्रत्येक प्रत्येक को प्राय. इनी शब्द से सबोधित करता है।
जैन पर्व पर्व, धर्म और समाज के अन्तर्मानस की मामूहिक अभिव्यक्ति है। व्यष्टि और समष्टि के जीवन क्रम में जिस विश्वास. वारणा तथा उत्माह की आवश्यकता पडनी है, उसकी पूर्ति पर्यों से होती है। पर्व और उत्सव दोनो ही मानव की मूलभूत भूक मस्कार निर्माण, सभ्यता शिक्षण, और सस्कृति अभिव्यजन का कार्य पूरा करते है, किसी भी धर्म अयवा समाज की आधारभूत पृष्ठभूमि को समझने के लिए पर्वो और उत्सवो को जान लेना अत्यावश्यक है। प्रत्येक धर्म के शास्त्र सिद्धान्त, और प्रतीक की तरह अपने मौलिक रूप मे पर्व भी होते है। दार्शनिक, धार्मिक, मामाजिक और सैद्धान्तिक विभिन्नता ही पर्वो की विभिन्नता का कारण है। जैनधर्म के भी कुछ अपने पर्व है। एक जैन भी वर्ष के किसी-न-किमी दिन को पर्व का रूप देकर अपने धार्मिक स्वरूप का माक्षात्कार करता है। पर्वो का मीया सम्बन्ध समाज-अनुयायी वर्ग से है, किन्तु पर्यों का मूल रूप धर्म के प्रान्तर विचारो से उत्प्रेरित होता है । जैन पर्व जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करते है जैन पर्व मानव से खेल-कूद, ग्रामोद-प्रमोद, भोग-उपभोग अयवा हर्प व विपाद की मॉग नही करते, अपितु वे तो मनुष्य को तप, त्याग, स्वाध्याय, अहिमा, सत्य प्रेम, विश्ववन्धुत्व तथा विश्व मंत्री की भावना को प्रोत्साहित करते है। जैन पर्वो को दो स्पो में विभक्त किया जा सकता है, जैसे कि,