Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 228
________________ जैन धर्म पाते है और इस कारण साधु जीवन की साधना मे तरतमता होना अनिवार्य है । इस तारतम्य को लेकर जैनशास्त्रो में निर्ग्रन्थ श्रमणो का अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। उनमें से यहा श्रमणो के पाच भेदो का उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है । वे पाच' प्रकार के श्रमण-निर्ग्रन्थ यह है--- १ पुलाकनिर्ग्रन्थ--गेहू की फसल काट कर उसका ढेर किया जाता है, तो उसमे दाने कम और इतर भाग अधिक होता है, उसी प्रकार जिस निर्ग्रन्थ मे गुणो की अपेक्षा दोषो की मात्रा अधिक विद्यमान है, वह पुलाक कहलाता है। २ बकुशनिम्रन्थ--गेहू की कटी हुई पुत्राल को अलग कर दिया जाय, और बाले-बाले अलग छाट ली जाये, तो घास अपेक्षाकृत थोड़ा रह जाता है, फिर भी दानो से अधिक ही होता है । इसी प्रकार जिस निर्ग्रन्थ मे पुलाक की अपेक्षा अधिक गुण है । फिर भी दोषों की अपेक्षा गुणो की मात्रा अधिक नही बट सकी, वह बकुगनिम्रन्थ कहलाता है। ३ कुशीलनिर्ग्रन्थ---कषायकुशील निर्ग्रन्थो मे दो श्रेणिया होती है कपाय कुशील और प्रतिसेवना कुशील । कपायकुशील निर्ग्रन्थ सयम पालता है, शानाभ्यास करता है और यथाशक्ति तपस्या करता है, फिर भी उसके अन्त करण मे कपाय उमड आता है। कपाय को दबाने का प्रयत्न करने पर भी वह पूरा सफल नहीं होता। वह कटुक वचन और निन्दा सुनकर क्रुद्ध हो जाता है। आत्म प्रगसा सुनकर अभिमान करता है और शिप्य तथा सूत्र के लोभ से छटकारा नही पाता। प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ--प्रतिसेवना कुशील निग्रन्थ ज्ञान की सम्यक् प्रकार से आराधना नहीं करता, दर्शन का विराधक होता है और चारित्र का तथा लिग की विराधकता का भी उसमे दोप हो सकता है, और वह तपादि का नियाणा भी कर लेता है इसी लिए उसे प्रतिसेवना कुगील कहते है। ५ निर्ग्रन्थ--निर्ग्रन्थ जो अपनी सावना के अन्तिम शिखर पर पहुचने ही वाले है, जो लर्वन-सर्वदर्णी वनने ही वाले है, वे साधु निर्ग्रन्थ कहलाते है । १. पंच पियंठा पण्णत्ता-पुलाए, वउसे, कुसले, णियंठे सिणाए, भगवती श० २५, उ०६।

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