Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 235
________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २१७ ममाधिमरण अगीकार करने वाला महासाधक सब प्रकार की मोह-ममता को दूर करके शुद्ध आत्मस्वरूप के चिन्तन मे लीन होकर समय यापन करता है। उसे पाच दोषो से बचने के लिए सतर्क किया गया है - १. इहलोकाशमा ऐहिक सुखो की कामना करना । २. परलोकागसा पारलौकिक सुखो की कामना करना। ३. जीवितारासा समाधिसरण के समय पूजा-प्रतिष्ठा होती देख कर अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना। ४. मरणाशमा भूख, प्याम या रोगजनित व्याधि से कातर होकर जल्दी मरने की इच्छा करना। ५. कामभोगाशमा - इन्द्रियो के भोगो की आकाक्षा करना। समाधिमरण लेने वाले महात्मा को इन पाँच दोषो से बचना चाहिए, और पूर्ण समभाव में स्थित होकर ममाधिमरण के परमानन्द को कलुषित नही , करना चाहिए। भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट मृत्युकला का यह सक्षिप्त दिग्दर्शन है। दस कला की उपासना श्रावक और सावु दोनो को करनी चाहिए। १ उपासकक्शाक-सूत्र, अ० १, भगवती, शतक १३, उ०८ पा० ३० ।

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