Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 243
________________ जैन धर्म को परम्परा २२५ मन है कि याज जो गिलाच अशोक के नाम से प्रसिद्ध है, सभव है वे सम्प्रति के निखवारे हुए हो । । कलिंग चक्रवर्ती खारवेल - इम्पी सन् से पूर्व दूसरी शताब्दी में महाराजा सावेत ए । उस युग की राजनोनि मे खारवेल सब से अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। उनके समय में जैनधर्म का व उत्कर्ष हुआ। उनके प्रयास में जैन साधुग्रो तथा जैन विद्वानों का एक सम्मेलन हुआ । जैन-मब ने उन्हें महाविजयी मेमराजा तथा मिक्षराजा और धर्मराजा की भी पदवी प्रदान की। जैनधर्म के पति की गई खारवेल की सेवाएं बहुमूल्य है । वह प्रत्यन्त प्रतापी राजा हुए है। कलचूरी और कलभ्रवंशी राजा - क्लचूरि राजवंश मध्यप्रान्त का सबसे वडा राजवा था । साठवी-नौवी शताब्दी में उसका प्रवन नाम चमक रहा था । इस वंश के राजा जैनयम के कट्टर अनुयायी थे । त्रिपुरी इनकी गजवानी थी। प्रो०रास्वामी का कथन है कि इनके वराज ग्रान भी जैन कलार के नाम से नागपुर के ग्रासन्भाग मोजड है । होयसेल वंशी राजा -- हायमेल वा के अनेक राजा, श्रमात्य और सेनापति जैनयम के अनुयायी थे । मुदत्त मुर्ति इस वश के राजगुरु थे। पहले यह चालुक्यो के माण्डनिक थे, पर १९१६ में उन्होने स्वतंत्र राज्य की प्रतिष्ठा की थी । गगवशी राजाईमा की दूसरी सदी मे गग राजाओ ने दक्षिण प्रदेश में अपना राज्य स्थापित किया। ग्यारहवी सदी तक वे विस्तृत भूखण्ड पर शासन करते रहे। यह सब राजा परम जैन थे। इस वग के प्रथम राजा मानव थे, जिन्हे कोणी वर्मा भी कहते है । वह जैनाचार्य मिनन्दि के शिष्य थे । उनके समय मे जैनधर्म, राजधर्म वन गया था। इसी वग का दुर्विनीत राजा प्रसिद्ध वैयाकरण जैनाचार्य पूज्यपाद का शिष्य था । एक और राजा मारसिह ने अनेक राजाओ पर विजय प्राप्त करके, ऐश्वर्यपूर्वक राज्य करके अन्त मे भिक्षु का पद अगीकार किया । जैनाचार्य जितसेन मे पादमूल मे समाधिमरणपूर्वक आयु पूर्ण की। शिलालेख के आधार में उनकी मृत्यु ई० स० ९७५ में हुई । इस ऋण की महिलाएँ भी जिनेन्द्र देव की महान् उपासिकाएँ थी । राजा मारमिह द्वितीय के सुयोग्य मत्री चामुण्डराय थे । गारसिंह के पुत्र राजमल्ल के वह प्रधानमंत्री, और मेनापति हुए। वह दृढ जैनधर्मानुयायी थे । सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र चामुण्डराय के धर्मगुरु थे । कनडी भाषा मे लिखित " त्रिपठिलक्षण" महापुराण उनकी प्रभित्र रचना है। इन्ही चामुण्डराय ने श्रमण वेलगोला मे, 1

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