Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 234
________________ २१६ जन बम ९. सशल्य मरण परलोक की सुरवाशा के साथ या मन मे कपट लेकर मरना। १०. प्रमाद मरण सकल्प विकल्प से मुक्त होकर जीवन त्याग करना। ११. वगात् मत्यु इन्द्रियाधीन अथवा कषायाधीन होकर मरना १२. विपुल मरण सयमशील व्रत आदि पालन में असमर्थता देख अपवात करना। १३. गद्वपष्ठ मरण युद्ध के मैदान मे लडते हुए मरना । १४. भक्तपान मरण - विधिपूर्वक त्याग करके मरना । १५. इगित मरण समाधिपूर्वक मरण। १६. पाटोप गमन मरण - साहार आदि त्याग कर वृक्ष के समाननिश्चल । भाव से मरना। १७. केवलि मरण - केवल ज्ञान हो जाने के बाद निर्वाण प्राप्ति। इन मृत्यु के भेदो मे बालपण्डित मरण, पण्डित मरण तथा अन्तिम शेष के चार मरण, जैनधर्मावुकूल मरण है। जैनधर्म ने मृत्यु के समय समाधि मरण के निमित्त अभ्यस्त हो जाने के लिए सथारा, सल्लेखना, तथा सस्तारक-विस्तार पर सोने के समय रात्रि को भी सागारी सथारा करने का विधान किया है। प्रतिरात्रि इस प्रकार सथारा करने से समाधि मरण की कला का ज्ञान भी हो जाता है, और अकस्मात् सोते-सोते ही मत्यु हो जाये तो जगत् के मोह की पाप क्रिया भी नहीं लगती । इस सथारे मे अन्तर इतना ही होता है कि यह सागारी सथारा कहलाता है, अर्थात् मोकर उठने पर, अथवा रोग शान्त हो जाने पर, कष्ट विकल जाने पर यह नियम समाप्त किया जा सकता है। क्योकि सथारे की मर्यादा लेने पर व्यक्ति का जगत् की अथवा अपनी ही किसी भी उपाधि पर अधिकार नही रहता। मृत्यु कला मे शिक्षा भी यही दी जाती है जिससे मरने के समय साधक ममत्व का पूर्णत त्याग कर सके। इसी लिए सभी प्रकार की मृत्यु मे से समावि मरण को ही श्रेष्ठ माना गया है । यह विवेकयुक्त समाधिमरण, पण्डितमरण और सकाममरण भी कहलाता है। प्राणान्तकारी सकट, दुर्भिक्ष, जरा अथवा असाध्य रोग होने पर, जब जीवन का रहना संभव न प्रतीत हो, समाधि मरण अगीकार किया जाता है। जैनगास्त्रो में समाधि मरण का विस्तृत वर्णन है। इसे मृत्युमहोत्सव की भाव पूर्ण सज्ञा दी गई है और अनेक प्रकार के भेद-प्रमेद करके इमका विशद वर्णन किया गया है।

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