Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 227
________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २०९ गुरुजनो का विनय करना, सेवा करना, स्वाध्याय करना और उत्सर्ग (त्याग) करना अन्तरग तप है। ८. त्याग-~-अप्राप्त भोगो की इच्छा न करना और प्राप्त भोगो से विमुख हो जाना, त्याग है । जीवन मे सच्चे त्याग का जब आविर्भाव होता है, तब मनुष्य कम से कम साधन-मामग्री से भी सन्तुष्ट एव आनन्दमय रहता है। भोग-लोलुप व्यक्ति प्रचुर मामग्री पाकर भी सन्तोष का अनुभव नहीं कर सकता । व्यक्तियों के जीवन में त्याग-भाव जागृत करने से अनावश्यक वस्तुप्रो का मग्रह नहीं किया जाता, परिणामत दूसरे लोग उनमे वचित नहीं होते, और विपमता फैलने से रुकती है। ९ किचनता--किमी भी वस्तु पर ममत्व न होना, किसी भी पदार्थ को अपना न समझना, और फूटी कौडी भी अपने अधिकार में न रखना अकिंचनता है । ममत्व समस्त दुखो का मूल है। जव पर-पदार्थ को अपना माना जाता है तो उसके विनाश या वियोग से दुख होता है। जो किसी भी पदार्थ को अपना नही मानता, उसे दुख ही क्या ? दु ख का मूल ममता और सुख का मूल समता है। १०. ब्रह्मचर्य--गव प्रकार के विषयविकार से दूर रहकर ब्रह्म अर्थात प्रात्मा मे विहार करना ब्रह्मचर्य हैं । व्रतो के प्रकरण में इसका विचार किया जा चुका है। इन दश धर्मों का पालन करना मुनियो के लिए परमावश्यक है । श्रावको को भी अपनी शक्ति के अनुसार पालन करना चाहिए। व्यक्ति और समष्टि की शक्ति के लिए यह धर्म कितने आवश्यक ह, यह वात इन पर विचार करने मे गहन समझी जाती है। निन्थो के प्रकार प्रात्मा अनादिकाल से विकारग्रस्त चला आ रहा है। दीर्घकालीन मस्कारो मे ऊपर उठना भी कठिन होता है, अनादि कालीन सस्कारो से सर्वथा ऊपर उठ जाना कितना कठिन है, यह कल्पना कर लेना सरल है । प्रयत्न करतेकरते और निरन्तर सावधान रहते-रहते भी भूतकालीन सस्कार कभी-कभी उभर १ मनुस्मृति और विष्णुपुराण में भी यति धर्म के दश भेदो के नाम ने इनका वर्णन किया गया है। यति शब्द से श्रमण धर्मो का ही बोध होता है।

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