Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 212
________________ १९४ जैन धर्म व्यापारी की यह महत्त्वपूर्ण सेवा है । यह सेवा करता हुआ व्यापारी अपने निर्वाह के लिए कुछ अश बचा लेता है । जिसे मुनाफा कहते हैं। जिस व्यापारी के जीवन निर्वाह का दूसरा स्रोत मौजूद है, उसे मुनाफा लेने की आवश्यकता नहीं। फिर भी वह प्रजा के अभावो को दूर करने के लिए सेवा के रूप में व्यवसाय करता है। ‘जैनशास्त्र इस आदर्श व्यापार नीति की ओर सकेत करते है। श्रावक की जीवन-नीति की इससे अच्छी कल्पना आ सकती है । जैन श्रावक सन्तोष के साथ अपना जीवन निर्वाह करता है । प्रतिदिन वीतराग देव की पूजा (भाव-भक्ति) करना, गुरु की उपासना करना, स्वाध्याय करना, सयम का सेवन करना, यथाशक्ति तपस्या करना और यथोचित दान देना गृहस्थ का दैनिक कर्तव्य है। चारित्र का मूलाधार अहिंसा गृहस्थ के व्रतो का नो शब्द-चित्र खीचा गया है, उसे पढने से एक बात सहज ही ध्यान मे आ सकती है, वह यह है कि वहा ससार को छोडकर भागने की बात नही है। ससार को मिथ्या मानने या अवास्तविक कहने की भ्रमपूर्ण बात भी नही है । जगत् के प्राणियो से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने का प्रश्न भी नहीं है । इस समग्र साधना का प्रधान-आधार है--"सर्वभूतात्मभूतता" अर्थात् प्राणीमात्र को प्रात्मीय भाव से अगीकार करना। दूसरे शब्दो मे यही अहिसा है। अहिसा की भूमिका पर ही व्रतो की विशाल अट्टालिका का निर्माण हुआ है। अहिसा से ही सर्वसमासंस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ है। मानवता के उत्थान और आत्मविस्तार का माध्यम अहिसा ही है । अहिसा से ही सार्वभौम शान्ति का सर्जन होगा। यही कारण है कि जैनधर्म मे अहिसा को ही धर्म एव सदाचार की कसौटी माना गया है। अहिसा जैन सस्कृति की आत्मा है । अहिसा से ही आत्मा की पुष्टि होती है । अहिसा आध्यात्मिक जीवन की नीव है, जीवन का मूल मन्त्र है। अहिसा दैवी शक्ति है, अहिसा परम धर्म, और परम ब्रह्म है। अहिसा वीरता की सच्ची निशानी है। मानव और दानव मे अहिसा और हिसा का ही अन्तर है । अहिसा ही सुख-शान्ति की जननी, और जगत् की रक्षा करने वाली अलौकिक शक्ति है।

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