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चारित्र और नीतिशास्त्र
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समभाव को प्राप्त करने, विकसित करने और स्थायी बनाने के लिए जिस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है, वह सामायिक व्रत है । इस व्रत की आगवना का काल ४८ मिनिट निर्दिष्ट किया गया है । इस काल में गृहस्थ श्रावक को समस्त पापमय व्यापारो का त्याग करके आत्मचिन्तन करना चाहिए। सामायिक के समय मे प्राप्त हुई समभाव की प्रेरणा को जीवनव्यापी बनाने का यरन करना चाहिए ।
५ देशावकाशिकव्रत --- दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए किये गए दियाओ के परिमाण को एक दिन या न्यूनाधिक समय के लिए कम करना, और उस परिमाण से बाहर समस्त पाप कार्यो का त्याग करना देशावकाशिक वत है |
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६. पौषवव्रत --- जिमसे प्रात्मिक गुणो या धर्म भाव का पोषण होता है, वह पौषघव्रत कहलाता है । इस व्रत का श्राचरण प्राय अष्टमी, चतुर्दशी मादि विशिष्ट तिथियो में किया जाता है। एक रात-दिन उपवास करना, अखड ब्रह्मचर्य का पालन करना, तत्वचिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय एव ग्रात्मरमण करना और सब प्रकार की सासारिक उपाधियों से छुटकारा लेकर साधु सरीखी वृत्ति वारण कर लेना, इस व्रत की चर्या है ।
७. अतिथिसंविभाग -- 3 जिनके ग्राने का समय नियत नही है, उन्हें ग्रतिथि कहते है । निर्ग्रन्थ श्रमण पहले सूचना दिए बिना आते है । उन्हे सयमोपयोगी आहार आदि का दान करना श्रतिथि- सविभाग व्रत है ।
मग्रहपरायण मनोवृत्ति को कृश करने, तथा त्यागभावना को जागृत एव विकसित करने के लिए इस व्रत की व्यवस्था की गई है ।
अतिथि शब्द से मुख्यत साधु का अर्थ ध्वनित होता है, किन्तु श्रावक का हृदय इतना उदार, सदय और दानशील होता है कि साधु के सिवाय अन्य दीन-दुखी भी उसके द्वार से निराश होकर नही लोटता ।
इन वारह व्रतो का पालन करने से श्राध्यात्मिक उन्नति, साजाजिक न्याय तथा क्ष्व पर सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक गृहस्थ यदि बारह व्रतो की
१ उपासक दशांग अ० १
३ उपासक दशाग अ० १ ।
२ उपासक दशाग अ० १ ।