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सम्यग्ज्ञान
अनेकान्त
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सन्त संस्कृति के प्राणप्रतिष्ठापक और समन्वय सिद्धान्त के प्रणेता श्रमण भगवान् महावीर ने तत्व विचार की एक मौलिक और अतिशय दिव्य पद्धति जगत् को प्रदान की। यही नहीं, उन्होने वस्तु के सर्वाङ्गीण स्वरूप को समझाने की एक सापेक्ष भाषा-पद्धति भी दी। उन्होने बतलाया - " विचार अनेक हैं, और वहुत बार वे परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमे भी एक सामजस्य है, अविरोध है, और उसे जो भलीभाँति देख सकता है, वही वास्तव मे तत्वदर्शी है ।"
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परस्पर विरोधी विचारो मे अविरोध का आधार वस्तु का अनेकधर्मात्मक होना है । एक मनुष्य जिस रूप मे वस्तु को देख रहा है, उसका स्वरूप उतना ही नही है । मनुष्य की दृष्टि सीमित है, पर वस्तु का स्वरूप सीम है । प्रत्येक वस्तु विराट् है, और अनन्त अनन्त ग्रो, धर्मो गुणो और शक्तियो का पिण्ड है । यह ग्रनन्त ग्रश उसमे सत् रूप से विद्यमान है । यह वस्तु के सहभावी धर्म कहलाते है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु द्रव्यशक्ति से नित्य होने पर भी पर्याय शक्ति से क्षण क्षण में परिवर्तनशील है । यह परिवर्तन (पर्याय) एक दो नही, हजार लाख भी नही, अनन्त है, और वे भी वस्त केही भिन्न है । यह ग्रश क्रमभावी धर्म कहलाते है ।
इस प्रकार अनन्त सहभावी धर्मो और अनन्त क्रमभावी पर्यायो का समूह एक वस्तु है । मगर वस्तु का वस्तुत्व इतने में भी समाप्त नही होता, वह इससे भी विशाल है |
जैसे सिक्के के दो वाजू होते है, और दोनो वाजू मिलकर ही पूरा सिक्का वनता है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत्ता और सत्ता दोनो शो के समुदाय से बना है । अभी जिन धर्मों और पर्यायो का उल्लेख किया गया है, वे सब तो सिर्फ सत्ता - है । ग्रसत्ता प्रश इससे भी विराट् है और वह भी वस्तु का
ग्रग ही है ।
किसी भी पदार्थ मे इतर पदार्थो की अभाव रूप से पाई जाने वाली वृत्ति, वस्तु का सत्ता प्रश है ।
१ स्याद्वादमंजरी, कारिका, ५ ।