Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 199
________________ चारित्र और नीतिशास्त्र' १८१ और अप्रशस्त । जो वस्तु या घटना जैसी है उसे वैसी न कहकर अन्यथा कहना अयथार्थ असत्य है। जिसे साधारण जन भी असत्य मानते है, परन्तु जो वजन दूसरो को पीडा पहुचान के लिए बोला जाता है, जिसके पीछे दुर्भावना काम कर रही होती है, वह भी असत्य होता है अत उसे अप्रशस्त असत्य कहते है। किसी निर्धन को कगाल कहना, चक्षुहीन को चिढाने या चोट पहुचाने के लिए अन्धा कहना, किसी दुर्बल को दुखी कहने के लिए मरियल आदि कहना, अथवा हिंसाजनक या हिसोत्तेजक भाषा का प्रयोग करना, यह सब असत्य मे परिगणित है, फिर भले ही वह तथ्य या यथार्थ ही क्यो न हो। अदत्तादान--स्वामी की इच्छा या आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना अपने अधिकार में करना अदत्तादान है। किसी की वस्तु मार्ग मे गिर पडी है या कोई अपनी वस्तु कही रखकर भूल गया है, उसे हड़प जाना या दवा लेना भी अदत्तादान मे ही सम्मिलित है । जव मनुष्य लालच-वृत्ति को स्वच्छन्द छोड देता है, तब अनधिकृत वस्तु पर भी अधिकार करने का प्रयत्न करता है । नीति-अनीति के विवेक को तिलाजलि दे देता है और जैसे-तैसे भी अपनी लोलुपता की पूर्ति करता है । इसी भावना से अदत्तादान-चोरी के पाप का प्रादुर्भाव होता है। मैथुन--स्त्री और पुरुष के कामोद्वेगजनित पारस्परिक सम्बन्ध की लालसा एव क्रिया मैथुन कहलाती है। मैथुन को अब्रह्म कहा है और उसे अब्रह्म कह कर यह सूचित किया गया है कि काम-दोष आत्मा के सद्गुणो का नाश करने वाला है। यो तो प्रत्येक पाप आत्माको कलुषित करने वाला ही है, किन्तु मैथुन के पाप मे एक बड़ी बात यह है कि कई बार उसकी परम्परा दीर्घ काल के लिए चल पडती है । इस पाप के चक्कर मे पड कर व्यक्ति अन्यान्य पापो का प्राय शिकार बनता है। यह पाप आत्मा के सदगुणो का घात करता है। शरीर को नि सत्व बनाता है । समाज की नैतिक मर्यादाओ का उल्लघन करता है और अभ्युदय मे विकट बाधाए उपस्थित करता है । अतएव यह भयानक पाप है । परिग्रह-किसी भी परपदार्थ को ममत्व भाव से ग्रहण करना, परिग्रह . १ प्रश्न व्याकरणांग, आश्रव-द्वार २। २ प्रश्न व्याकरणाग, आश्रव-द्वार ३ । ३ प्रश्न व्याकरणाग, आश्रव-द्वार ४॥

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