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লৰ ঘৰ
१३. अम्याख्यान-दोषारोपण १४. पिशुनता-चुगली १५. परपरिवाद-परनिदा। १६. रति-अरति-हर्प और शोक । १७ मायामृषा-कपट सहित झूठ। १८ मिथ्यादर्शनशल्य-अयथार्थ श्रद्धा ।
आस्रव ----१ आत्मा मे कर्मों का आना और उनके आने का कारण आस्रव कहलाता है । मन, वचन, और काय की वह सब वृत्तिया, जिनसे कर्म आत्मा की ओर आकृष्ट होते है, आस्रव है । प्रास्रव कर्मवन्ध का कारण है।
आत्मा के लोक मे प्रास्रव ही कर्मों का प्रवेशद्वार है । मुमुक्षु-जीव को यह जान लेना अनिवार्य है कि वह कौन-सी वृत्तियाँ या प्रवृत्तिया है, जिनके कारण कर्मो का आगमन होता है ? उन्हे जाने बिना निरुद्ध नहीं किया जा सकता, और मुक्तिलाभ भी नही लिया जा सकता।
आस्रवजनक वृत्तियो और प्रवृित्तयो की ठीक तरह गणना नहीं हो सकती, तथापि वर्गीकरण करके जैनशास्त्रो मे अनेक प्रकार से उनका दिग्दर्शन कराया गया है । मूल में उनकी संख्या पाच है ...१. मिथ्यात्व
विपरीत श्रद्धा। २. अविरति
अहिंसा, असत्य आदि। ३. प्रमाद
कुशल अनुष्ठान मे अनादर । ४. कषाय
क्रोध, मान, माया, लोभ । ५, योग
मन, वचन और काया का व्यापार । संवर- मुमुक्षु जीव कर्मों के प्रास्रव के कारणो को पहचान कर जब उनसे विरुद्ध वृत्तियो का अवलम्बन लेता है तो आस्रव रुक जाता है । आस्रव का रुक जाना ही संवर है । उदाहरणार्थ-यथार्थ श्रद्धानिष्ठ बनने पर मिथ्यात्वजन्य आस्रव रुक जाता है, अहिंसा सत्य आदि व्रतो का आचरण करने से अविरति-जन्य प्रास्रव नही होता, अप्रमत्त अवस्था मे प्रमादजन्य आस्रव नहीं होता, वीतरागदशा प्राप्त कर लेने पर कषाय-जन्य प्रास्रव रुक जाता है, और पूर्ण आत्मनिष्ठा प्राप्त कर लेने पर योग-जन्य आस्रव रुक जाता है।
कर्मास्रव का निरोध मन, वचन, काय के अप्रशस्त व्यापार को रोकने
१. समवायांग, समवाय ५ । २. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ११ । ३ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ९, सूत्र २, स्थानांगवृत्ति, स्था० १।