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सम्यग्ज्ञान
है कि द्रवित होना, प्रवाहित होना । ससार के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते है, समय पाकर नष्ट होते है, फिर भी उनका प्रवाह सतत गति से चलता ही रहता है। इस प्रकार तत्त्व के तीन स्वरूप निश्चित होते है-उत्पन्न होना, नष्ट होना, ध्रुव बना रहना।
कुम्भकार खेत मे से मिट्टी लाता है, और घडा बनाता है । तब घडे की उत्पत्ति होती है और मृत्तिका का नाश हो जाता है। मृत्तिका और घट, दोनो अवस्थानो में विद्यमान सामान्य तत्त्व ध्रौव्य है।
तात्पर्य यह है कि प्रजनन और विनाश की अविरत गतिशील धारा मे भी पदार्थ का मूल स्थायी रहता है। इसी ज्ञान को भगवान महावीर ने मातृका त्रिपदी ' कहा है। इन तीन अशो का समन्वय होना ही सत् २ का लक्षण है । इस असीम और अनन्त विश्व का कण-कण तीनो अशो से समन्वित है, जिसमे यह तीनो अग नही, ऐसी किसी वस्तु की सत्ता सभव नही है।
३ विश्व का मूल -तात्त्विक एव मौलिक दृष्टि से विश्व का विश्लेपण किया जाय तो दो तत्त्व या द्रव्य उपलब्ध होते है ३, चेतन और जड़ । कतिपय दार्गनिक जगत् के मूल मे एक मात्र चैतन्यमय तत्त्व' की सत्ता अगीकार करते है तो दूसरे एक मात्र जड तत्त्व की । मगर जैनधर्म न अद्वैतवादी है, और न अनात्मवादी। अतएव वह दोनो तत्त्वो के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। जड़ तत्त्व मे इतनी विविधता और व्यापकता है कि उसे समझने के लिए थोड़े पृथक्करण की आवश्यकता होती है । अतएव उसके पाच विभाग कर दिये गये है । जीव के साथ उन पाच प्रकार के अजीवो की गणना करने से सत् पदार्थों की सख्या छह स्थिर होती है । वे यह है :
१. जीव, २ पुद्गल, ३ धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. आकाश, ६. काल ।
सत् का दूसरा नाम द्रव्य है । यह समन चराचर लोक इन्ही षद्रव्यो का प्रपच है। इनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही है। द्रव्य नित्य है, अतएव
१ माउयाणयोगे, उपन्ने वा, विगये वाधुवे वा, स्थानाम, स्था० १०, २ सहव्वं वा, व्याख्याप्रज्ञप्ति, श० ८, उ० ९ । ३. नीवदव्या य, अजीव दवा य, अनुयोग, सू०, १४१