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जैन धर्म लोक भी नित्य है। उसका किसी भी भौतिक लोकोत्तर शक्ति द्वारा निर्माण नही किया गया है । अनेक कारणो से समय-समय पर उसमें परिवर्तन हुआ करते है, परन्तु मूल द्रव्यो का न नाग होता है और न उत्पाद ही। इसी कारण जैनधर्म बनेक मुक्तात्मा (ईश्वरो) की सत्ता स्वीकार करता हुआ भी उन्हे सृष्टिकर्ता नही मानता।
___जीव, पुद्गल आदि को द्रव्य कहने का कारण, उनका विविध परिणामो से द्रवित होना है। परिणाम या पर्याय के विना द्रव्य नही रहता और विना द्रव्य के पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता।
४ पृथक्करण-हम जिसे वस्तु कहते है, उसमे तीन अश विद्यमान होते है-द्रव्य, गुण और पर्याय ' । वस्तु का नित्य अग द्रव्य है, सहभावी अश गुण है, और क्रमभावी अश पर्याय है। एक उदाहरण द्वारा इन तीनो का स्वरूप समझे-जीव द्रव्य है, उसका सदा विद्यमान रहने वाला ज्ञान चैतन्य-गुण है और मनुष्य पशु, कीट, पतग आदि दशाये पर्याय है । यह तीनो अंग सदैव परस्पर अनुस्यूत रहते है, और वस्तु कहलाते है।
नक्षेप में द्रव्य वह है जो गुण और पर्याय से मुक्त हो, अथवा जो उत्पाद और विनाग से युक्त होकर भी अपने मूल स्वभाव का त्याग न करने के कारण ध्रुव हो।
वस्तुनो मे पाई जाने वाली भिन्नता दो प्रकार की होती है-'अन्यत्वरूप' और 'पृथक्त्व रूप'। दूध और दही की भिन्नता अन्यत्व रूप और कागज तथा कलम की भिन्नता पृथक्त्व रूप है। दूध और दही के पर्याय मे अन्तर है, मगर मृल च्य-प्रदेगो मे नही, जब कि कागज और कलम के प्रदेश मूलतः पृथक्पृथक् है । मनुष्य बालक है, युवा है, वृद्ध है । इन दगानो में अन्यत्व तो है, किन्तु पृथवन्ध नहीं, क्योकि इन तीन अवस्थानो मे मूलगत ननुप्य एक ही है।
द्रव्य, गुण और पर्याय मे भी पृथक्त्व रूप भिन्नता नही है। द्रव्य को यह नादिनिधन गक्तियाँ, जो द्रव्य में व्याप्त होकर वर्तमान रहती है, गुण करताती है, और उत्पन्न-विनष्ट होने वाले विविध परिणाम 'पर्याय' कहलाते है । इन दोनो का समूह द्रव्य कहलाता है।
१. उत्तराध्ययन, ३० २८, गा०
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