________________
५८
जैन धर्म ३ निर्विचिकित्सा ---मनि जन देह मे स्थित होकर भी देह सम्बन्धी वासना से अतीत होते है । अतएव वे देह का सस्कार नहीं करते । उनके मलिन तन को देखकर ग्लानि न करना एव धर्म के फल मे सन्देह करना, निर्विचिकित्सा अग है।
४ अमूढदृष्टित्व -सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक विचारणा और प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है, उसने अपने जीवन का जो प्रशस्त लक्ष्य नियत कर लिया है, उसकी ओर आगे बढने मे सहायक विचार और व्यवहार को ही वह अपनाता है। किसी का अधानुकरण वह नहीं करता। सोच विचार कर प्रत्येक कार्य करता है। जिससे सघ को लाभ हो, आत्मा उज्ज्वल हो और दूसरो के समक्ष स्पृहणीय आदर्श खडा हो, ऐसी ही उसकी प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार अपनी प्रजा को जागृत रखना और प्रमादग्रस्त न होने देना ही अमूढदृष्टित्व अग है ।।
५. उपवृ हण --जो गुणी जन है, विशिष्ट ज्ञानवान्, मंयमी, धर्मप्रभावक, समाजसेवक अथवा सम्यग्दर्शी है, उनकी समुचित सराहना करना, उनके उत्साह की वृद्धि करना, यथाशक्ति सहयोग देना, और उन्हे बढावा देकर अग्रसर करना उपवृ हण अग है।
६. स्थिरीकरण -सासारिक कप्टो मे पडकर, प्रलोभन के वशीभूत होकर, या किसी अन्य प्रकार से वाधित होकर जो सम्यग्दृष्टि अपने सम्यक्त्व से च्युत होने वाला है अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने जा रहा है, उसका कष्ट निवारण करके या भ्रष्ट होने के निमित्त हटाकर, पुन. उसे स्थिर करना स्थिरीकरण अग है।
७ वात्सल्य ससार सम्बन्धी नातेदारियो मे साधर्मीपन की नातेदारी सर्वोच्च है। अन्यान्य रिश्ते मोह-वर्धक है, किन्तु साधर्मीपन का सम्बन्ध अप्रशस्त राग को दूर करने वाला और प्रकाश की ओर ले जाने वाला है । ऐसा समझ कर सहधर्मी के प्रति उसी प्रकार आन्तरिक स्नेह रखना, जैसे गाय अपने बछडे पर रखती है, वात्सल्य अग कहलाता है।
८ प्रभावना --जगत मे वीतराग के मार्ग का प्रभाव फैलाना, धर्म सम्बन्धी भ्रम को दूर करना, और धर्म की महत्ता स्थापित करना प्रभावना अग है।
प्रत्येक व्यक्ति मे किसी न किसी प्रकार की विशिष्ट शक्ति विद्यमान रहती है। किमी में विद्यावल तो किसी मे चारित्रवल, किसी मे त्यागबल,