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सम्यग्ज्ञान
२. ज्ञान की यथार्थता और अयथार्यता:-यथार्य वोध सम्यग्जान और अयथार्थ बोध मिथ्याजान कहलाता है ' । ययार्थता और अयथार्थता से क्या अभिप्राय है ? इस प्रश्न का उत्तर दो प्रकार से दिया जा सकता है-लौकिक अर्थात् दार्गनिक दृष्टिकोण से, और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से।
जिस जान मे सशय, विपर्यास अनध्यवसाय न हो, वह ज्ञान दार्शनिक दृष्टिकोण से यथार्थ माना जाता है २ । किन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वही जान यथार्थ हो सकता है जिस के पीछे मिथ्यात्व न हो । मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन, ज्ञान को मिथ्या वना देता है। जिस आत्मा मे सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति हो चुकी है, जिसकी दृष्टि शुद्ध हो चुकी है, उसका ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से सम्यग्जान है।
इसके विपरीत जो ज्ञान सशय आदि समारोपो से युक्त है, अर्थात् जो संशययुक्त है, सर्प को रस्सी समझने के समान विपरीत बोध रूप है या अनिर्णायक है, वह दार्शनिक दृष्टिकोण से अयथार्थ है, और जिस ज्ञान के पीछे मिथ्यात्व है, दुराग्रह है, दुरभिनिवेश है, आध्यात्मिक जागृति नही है, और लक्ष्य की पवित्रता नही, वह आध्यात्मिक दृष्टि से अयथार्थ है।
३. ज्ञान के भेद :--ज्ञान सामान्य रूप से एक है, फिर भी उसे विविध प्रकार से भेद-प्रभेद करके समझाने का प्रयत्न किया गया है । ज्ञान की तरतम अवस्थाओ, कारणो एवं विषय आदि के आधार पर यह भेद-प्रभेद किये गये है। मूलत ज्ञान पाच प्रकार का है ---
१. मतिज्ञान २. श्रुतमान ३. अवधिज्ञान ४. मन पर्यवज्ञान
५ केवलज्ञान 3 ४. ज्ञान की प्रत्यक्ष परोक्षता -इन पाच ज्ञानो मे से पहले के दो अर्थात मतिनान और श्रुतजान परोक्ष है, और अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष है। इतर भारतीय दर्शन साधारणतया इन्द्रियो द्वारा होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते है ।
१.-२. द्रव्य संग्रह। २. स्थानांग, सूत्र, स्थान २, उ० १, सूत्र ७१ । ३. नन्दी सत्र