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सद्धं नगरं किच्चा , तव संवर मग्गलं ।
खंति निउण पागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं ॥ धणु परक्कम किच्चा, जीवं चाईरियं सया। धिइंच केयणं किच्चा, सच्चेण परिमंथए । तव नाराय जुत्तेण, भित्तूणं कम्म कंचुयं । मणी विगय संगामो, भवाओ परिमुच्चए ।
--उत्तराध्ययन, अ० ९, गा० २०-२२ ।
ओ सापक !
श्रद्धा को नगर बनाकर, तप सवर रूप अर्गला, क्षमा रूप । कोट, मन वचन तथा काया के क्रमश. बुर्ज, खाई तथा शत
नियों की सुरक्षापक्ति से अजेय दुर्ग बनाओ। और पराक्रम के घनग्य पर, इर्या समिति रूपी प्रत्यचा चढा कर, धृति रूपी मूठ से पकड़, सत्य रूपी चाप द्वारा खीच कर, तप रूपी बाण से, कर्म रूपी कचुक कवच को भेदन कर दो, जिससे संग्राम मे पूर्ण विजय प्राप्त कर, मुक्ति के परमधाम को प्राप्त करो।
मुक्ति-मार्ग