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जैन धर्म
मे बुद्ध की भी दृष्टि बहुत ऊची थी। ब्राह्मणसंस्कृति के सम्मुख ये दोनो श्रमणसंस्कृति के उज्ज्वल नक्षत्र थे ।
न केवल एशियाई वमुन्धरा पर, वरन् समस्त विश्व के कोने-कोने मे दोनो ने अपनी दिव्य करुणा का अमृत प्रवाहित किया है और ज्ञान-प्रकाशद्वारा विश्व की भूत एव भावी पीढियों को मार्ग दर्शन दिया है ।
जीवन-शोवन, अहिसा - पालन और श्रमण के लिए प्रावश्यक नियमों में इन दोनो महापुरुषो में सामान्यतया अधिक अन्तर नही है ।
दोनों मे भोग के प्रति गहरी घृणा है । राग-द्वेष के प्रति शत्रुता है । आत्मशुद्धि के लिए उत्कट प्रेरणा है । अहिसा दोनो को प्रिय रही है ।
दोनों संस्कृतियों की मूल प्रेरणा एक
जैन संस्कृति और बौद्ध संस्कृति की मूल प्रेरणा लगभग एक सी है । "पार्श्वनाथा चा चारयाम" ग्रंथ मे पं० धर्मानद कौशाम्बी ने तो यहा तक सिद्ध कर दिया है कि भगवान् बुद्ध ने भगवान् पार्श्वनाथ के चार याम धर्म का ही पांचशील अथवा ग्रष्ट अंग के नाम से विकास किया है ।
ऐतिहासिक विद्वान तो यहां तक खोज कर चुके है कि भगवान् बुद्ध पार्श्वनाथीय सम्प्रदाय के किसी साधु के साथ रहे थे । किन्तु बाद मे जाकर उन्हें कठोर तपस्या के प्रति घृणा हो गई और उन्होने अपना अलग मध्यम मार्ग निकाला ।
"भारतीय सस्कृति और अहिंसा" मे धर्मानंद कौशाम्बी ने भगवान पार्श्व - नाथ के चार याम की तथा बुद्ध के मध्यम मार्ग की बड़ी सुन्दर तुलना की है ।
सम्यक् कर्म
सम्यक् वाचा
सम्यक् आजीव
( अहिंसा, अस्तेय ) (असत्य)
( अपरिग्रह )
इस प्रकार पार्श्वनाथ के चार यामों का समावेश अष्टांगिक मार्ग के तीन ग्रगो मे हुआ है । शेष पाच भी ग्रहिसा के ही पोषक है । जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् व्यायाम सम्यक् स्मृति और सम्यक् समावि ।
बुद्ध इस प्रकार का एव वाचा का सयम, सम्यक्त्व करके मानसिक-शुद्धि की अभिवृद्धि की कल्पना करते थे ।
जैन और बौद्ध धर्म मे चाहे धार्मिक अथवा सैद्धान्तिक मतभेद हो, तो भी