Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): G R Jain
Publisher: G R Jain

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Page 15
________________ और कोई अन्तर नहीं है । इन बातों से स्निग्धरुक्षात्वाद्बंध: ' इस सूत्र की प्रामाणिकता सम्पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाती है । जिस प्रकार दिवाली के दिन बाजार में बिकने वाले भिन्न-भिन्न खांड के खिलौने यथा बन्दर, रानी, हाथी, घोड़ा आदि विविध रूपों में दिखाई देते हैं। यदि मूलतः देखा जाय तो ये वास्तव में एक ही खांड के भिन्न-भिन्न रूप हैं । हाथी के खिलौने को रानी का रूप दिया जा सकता है और घोड़े को बन्दर की शक्ल में बदला जा सकता है । इसी सिद्धान्त के अनुसार वैज्ञानिकों ने यह जानकर कि सोना, चांदी, तांबा, लोहा, पारा सब एक ही शक्कर के भिन्न-भिन्न रूप हैं एक को दूसरे रूप में परिवर्तित करके संसार को चकित कर दिया है । जब स्निग्ध अथवा रक्ष कणों की संख्या बढ़ानी पड़ती है तो उसे 'पूरण' क्रिया कहते है और जब घटानी पड़ती है तब उसे 'गलन' त्रिया कहते हैं । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्राजकल के वैज्ञानिक विश्लेषण के ठीक अनुकूल जैनाचार्यों ने इस विलक्षण 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थों में बहुत वर्षों पहले किया था । परमाणुवाद यों तो परमाणुओं की कल्पना आज से २|| हजार वर्ष पूर्व डिमोक्राइटस ग्रादि यूनानी विद्वानों ने भी की थी श्रौर भारत में तो एक ऋषि का नाम ही कणाद ऋपि पड़ गया जिन्होंने पदार्थों के अन्दर कणों अथवा परमाणुओं की कल्पना की थी। किन्तु विज्ञान की दुनिया में लगभग १०० वर्ष तक

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