Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): G R Jain
Publisher: G R Jain

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Page 44
________________ आइन्सटाइन ने आकाश और काल को विचित्र रूप में मिश्रित कर दिया है। उसके अनुसार बिना पुद्गल के आकाश और काल की कल्पना ही नहीं की जा सकती । जैनों के अनुसार एक-एक कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर निष्क्रिय रूप से पड़ा है। लोकाकाश के बाहर आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं पाया जाता । जब वहां पुद्गल ही नहीं है तो काल द्रव्य का अस्तित्व भी वहाँ नहीं हो सकता । 'न्यूटन' ने काल, आकाश और पुद्गल की स्वतन्त्र सत्ता मानी है । उसके अनुसार यह सारी दुनियां सिकुड़कर यदि एक ही पाइन्ट पर आ जाय तो समय तो निरन्तर चलता ही चला जायेगा। समय की अनन्तता के विषय में जैन-दृष्टि प्रो० एडिंगटन के उस वाक्य का समर्थन करती है जिसमें यह कहा गया है 'आकाश की गोलाई के कारण दिशायें तो पलट जाती हैं लेकिन समय में परिवर्तन नहीं होता' (There is a bending round by which East ultimately bo. comes West bu no bending by which Before ultimately becomes After). चूकि इस ब्रह्माण्ड की एक सीमा है, कोई भी पदार्थ अथवा शक्ति की किरण ब्रह्माण्ड की सीमा पर पहुंचकर विपरीत दिशा में परावर्तित (Refl: cted) हो जाती है अथवा पूर्व को जाती-जाती पश्चिम को जाने लगती है किन्तु काल का ऐसा परावर्तन नहीं होता अर्थात् भूतकाल परावर्तित होकर भविष्य में नहीं बदल सकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि समय का न कोई आदि है और न अन्त है।

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