Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): G R Jain
Publisher: G R Jain

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Page 41
________________ ५. आकाश कान्ट (Kant) और हीजन (Heel) आदि पाश्चात्य दार्शनिकों ने आकाश के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया । वे उसे मन की कल्पना बताते रहे । किन्तु आकाश के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा मकता। आकाश वह अमूर्त द्रव्य है जिसमें सभी द्रव्य स्थान पाते हैं। धर्म अधर्म और काल द्रव्य भी आकाश में ही स्थित है वे एक दूसरे में व्याप्त हैं अर्थात् परस्पर एक दूसरे में समावेश करने वाले (Inter penetrating) है । जैमा कि पहले बतला चुके हैं जैनाचार्यों ने आकाश के दो विभाग किये हैं, लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश मीमा सहित है और अलोकाकाश सीमा रहित । धर्म द्रव्य अथवा मीडियम अांफ मोशन (Medium of Motion) नाम का द्रव्य लोक से पर नहीं पाया जाता, इसलिये लोक के अन्दर से पुद्गल व आत्मायें बाहर नहीं जा सकते और इम अपेक्षा से लोक की एक सीमा बंध जाती है। लोक से परे अनन्त आकाश को अलोकाकाश कहते हैं, जहां आकाश के सिवाय और कोई द्रव्य नहीं पाया जाता। यह मान्यता बिलकुल उचित ही है ; क्योंकि ऐसे स्थान की कल्पना नहीं की जा सकती जिसके आगे आकाश न हो। कुछ दार्शनिकों ने आकाश और धर्म द्रव्य को समझने में गलती की है। उन्होंने आकाश को 'ईयर' समझा जो कि ब्रह्माण्ड के कोने

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