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उपधान-शास्त्र-स्वाध्याय प्रारभ करते समय उस शास्त्र के पूर्ण होने तक विशेष नियम या व्रत धारण करना उपधान नाम का ज्ञानाचार है।
उपपाद - देव व नारकी जीवो के उत्पत्ति स्थान को उपपाद कहते हैं। देवलोक मे देवो का उपपाट-स्थान ढकी हुई शय्या के समान होता हे, जहा जीव अतर्मुहूर्त में सुदर शरीर की रचना कर लेता है । नारकी जीव पाप के उदय से ऊट के मुख की आकृति वाले विल के समान उपपाद स्थान मे अत्यत कष्टपूर्वक जन्म लेते है ।
उपभोग - जीवो के द्वारा जो वस्तु वार- बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते है । जैसे - वस्त्र आभूषण, वाहन, आवास आदि ।
उपभोगान्तराय - जिस कर्म के उदय से जीव वस्त्र, आभूषण आदि उपभोग की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते है ।
उपमा-सत्य- जो उपमा सहित हो अर्थात् जिसमे किसी वस्तु की उपमा या समानता अन्य वस्तु से की गई हो वह वचन उपमा- सत्य है। जेसे- मुख को चंद्रमा के समान कहना । इसी प्रकार पल्योपम, सागरोपम आदि काल को मापने के जो उपमा-माप हे वह भी उपमा - सत्य है ।
उपयोग - 1 स्व और पर को ग्रहण करने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते हे। 2 जो चेतन्य का अन्वयी हे अर्थात् उसे छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता, वह परिणाम उपयोग कहलाता है । यह दो प्रकार का हे - दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग ।
51 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश