Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 250
________________ चतुर्थकाल का नाम सुपमा-दुपमा है । अवसर्पिणी के इस तृतीय काल में मनुष्या की ऊचाई एक कास और आयु एक पल्य होती है । मनुष्य एक दिन लाडकर दूसरे दिन आवला के वरावर आहार ग्रहण करत है। इस काल में उत्पन्न वालक-बालिका का युगल शय्या पर सात हुए सात दिन व्यतीत करता है। फिर शप सभी योग्यताए क्रमश मात-सात दिन व्यतीत हान पर प्राप्त हाती है और उनचास दिन में पूण बीवन और कला से सम्पन्न हो जाता है । इसके अतिरिक्त शेप सभी बातें सपमा-मपमा नापक प्रथम काल के समान होती है। तीन काडा-कोडी-मागर प्रमाण इस तृतीय काल म मनुष्यो की ऊचाई, वल और आयु उत्तरोत्तर घटतं जाते है । जव इस तृतीय काल में पल्योपम क आठव भाग मात्र काल शप रह जाता है तव कुलकरो की उत्पत्ति प्रारम हाती है और क्रमश चोटह कुलकर होते है। अतिम कुलकर की आयु एक काटि वप पूर्व आर शरीर की ऊचाई पाच सो धनुप होती है। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते है। यही भोगभूमि के समापन और कमभूमि क पारम का काल है। उत्सर्पिणी के इस चतुर्थकाल के प्रारभ में मनुष्यो को आयु एक कोटि वर्ष पूर्व होती हे ओर ऊचाई पाच सो धनुप पमाण होती है। जो क्रमश वढती जाती है इस काल में कल्पवृक्षों की उत्पत्ति हो जाती हे ओर शेप सभी वातं अवसर्पिणी के तृतीय काल के समान होती है। अत में मनुष्यो की आयु वढते-बढते एक पल्य ओर ऊचाई एक कोस तक हो जाती है। सुपमा-सुपमा-अवसर्पिणी के प्रथम काल ओर उत्सर्पिणी के छठवे काल का नाम सुषमा-सुषमा हे। अवसर्पिणी के इस प्रथम काल मे भूमि धूल, धूम, कटक आदि से रहित होती है। चींटी, विच्छू, मक्खी 258 / जनदर्शन पारिभाषिक कोश

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