Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 255
________________ उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जाति नामकर्म मे अनुदय प्राप्त द्वीन्द्रिय जाति आदि का सक्रमित होना । स्त्यानगृद्धि - जिसके निमित्त से स्वप्न अवस्था मे विशेष शक्ति प्रगट होती हे ओर जीव सोता हुआ भी कार्य करता है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हे । स्त्री - परीषह - जय - एकान्त उद्यान या भवन आदि स्थानो मे यौवन से उन्मत्त स्त्रियो के द्वारा बाधा पहुचाये जाने पर भी जो साधु कामविकार से विचलित नही होता उसके यह स्त्री - परीषह - जय कहलाता है । स्त्री-वेद - जिस कर्म के उदय से पुरुष के प्रति मैथुन या कामसेवन का भाव होता है वह भाव स्त्री-वेद कहलाता है । स्थलगता - चूलिका - जिसमे पृथिवी के भीतर गमन करने के कारणभूत मत्र-तत्र और तपश्चरण का और वास्तुविद्या तथा भूमि सवधी अन्य शुभाशुभ के कारणो का वर्णन किया है उसे स्थलगता - चूलिका कहते हे । स्थविर - कल्प- समस्त वस्त्र आदि परिग्रह का परित्याग करके दिगम्बर होना, पिच्छी कमण्डलु रखना, पाच महाव्रत, पाच समिति, पाच इन्द्रिय विजय आदि अट्टाइस मूलगुणों को धारण करना, हीन सहनन होने के कारण गाव, नगर आदि में रहना, जिसमें चारित्र भग न हो ऐसे उपकरणों की रखना, जो जिसके योग्य हो उसे पुस्तक देना, समुदाय के रूप में विहार करना, भव्यों को धर्म सुनाना व शिष्यो का पालन करना, यह सब होन सहनन वाले साधुओं के योग्य स्थविर -कल्प हे । जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 263

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