Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 260
________________ स्वर्ग - उर्ध्वलोक में रहने वाले वैमानिक देवी के निवास स्थान को स्वर्ग कहते है । स्वर्ग के दो विभाग हे-कल्प ओर कल्पातीत । स्वस्तिक - 5 यह पवित्र ओर कल्याणकारी चिह्न है। इसका उपयोग मंगल कार्यो मे होता है । स्वस्थान अप्रमत्त - देखिए अप्रमत्त । स्वहस्त - क्रिया- जो क्रिया दूसरों के द्वारा करने की हो उसे स्वय अपने हाथ से कर लेना स्वहस्त- क्रिया है । स्वातिसस्थान - नामकर्म - स्वाति का अर्थ सर्प की वाम्बी या शाल्मली वृक्ष है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वाति के समान आकार का होता है उसे स्वाति-सस्थान - नामकर्म कहते है । स्वाद्य-मुख का स्वाद वदलने के लिये खाये जाने वाले लोग, इलायची आदि पदार्थ स्वाद्य कहलाते है । स्वाध्याय - आत्महित की भावना से सत्-शास्त्र का वाचन करना, मनन करना या उपदेश आदि देना स्वाध्याय हे । अथवा आलस्य छोडकर ज्ञान की आराधना में तत्पर रहना स्वाध्याय नाम का तप है। स्वाध्याय के पाच भेद है - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । स्वामित्व - स्वामित्व का अर्थ आधिपत्य हे । अथवा स्वामी का अर्थ अधिष्ठाता या प्रयोक्ता है। स्वाहा - यह शान्तिवाचक बीजाक्षर है। पूजा मे द्रव्य चढाते समय इसका प्रयोग किया जाता है । 268 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश

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