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से अनेक पकार का परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्म-परिणाम के द्वारा ग्रहण किए गए पुद्गल ज्ञानावरणादि रूप अनेक भेदी का प्राप्त होते है ।
प्रचला - मद, खेट या थकावट आदि के कारण वेठे-वेठे ही झपकी आ जाना प्रचला है । प्रचला के तीव्र उदय में जीव किंचित् नेत्रो को खोलकर सोता हे ओर सोता हुआ भी कुछ जागता रहता है। वार-वार सीता ओर जागता हे। सिर थोडा-थोडा हिलता रहता है ।
प्रचलाप्रचलाप्रचला की पुनरावृत्ति का नाम प्रचलाप्रचला है । पचला - पचला के तीव्र उदय मे जीव खडे खडे भी सो जाता हे ओर हाथ, पेर, सिर आदि चलायमान हो जाते हे |
प्रज्ञा - परीपह-जय- अनक शास्त्री म पारगत ओर निपुण होते हुए भी जो साधु अपन शास्त्र ज्ञान का अभिमान नहीं करता ओर सदा समता रखता है उसका यह प्रज्ञा - परीषह -जय कहलाता है ।
प्रज्ञा - श्रमण - ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु विशेष अध्ययन के बिना भी समस्त शास्त्रों को सूक्ष्मता से जानने में समर्थ होता है उसे प्रज्ञा श्रमण ऋद्धि कहते हे ।
प्रतिक्रमण - 1 किए गये दोषो की निवृत्ति का नाम प्रतिक्रमण है । जव चारित्र का पालन करते हुए साधु से कोई दोष हो जाता है तो मन, वचन से 'मेने यह अयोग्य कार्य किया' ऐसा पश्चात्ताप रूप परिणाम उत्पन्न होता है । यही प्रतिक्रमण कहलाता है। देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक, ईर्यापथ ओर उत्तमार्थ के भेद से प्रतिक्रमण सात प्रकार का हे । यह साधु का एक मूलगुण हे 162 / जेनदर्शन पारिभाषिक काश