Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 209
________________ वध - परीषह - जय - तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा घात किये जाने पर मारने वाले के प्रति जो साधु लेशमात्र भी आक्रोश नहीं करते और इसे अपने पूर्वकृत कर्म का फल मानकर समता-पूर्वक सहन करते हैं उनके यह वध - परीषह जय है । वनस्पति - काय - वनस्पतिकायिक जीव के द्वारा छोडा गया शरीर अर्थात् निर्जीव वनस्पति को वनस्पति-काय कहते है । वनस्पतिकायिक- वनस्पति ही जिसका शरीर है उसे वनस्पतिकायिक कहते हैं । वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं - साधारण-वनस्पति और प्रत्येक वनस्पति । वनस्पति- जीव- जो जीव वनस्पतिकायिक मे उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति मे जा रहा है उसे वनस्पतिजीव कहते है । वनीपक- दोष- कुत्ता, कौवा या पाखण्डी साधु आदि को दान देने से पुण्य होता है - ऐसा दाता के अनुकूल वचन बोलकर यदि साधु आहार ग्रहण करे तो यह वनीपक नाम का दोष है । वन्दना - 1 एक तीर्थकर की स्तुति करना वन्दना कहलाती है । 2 जिसमे एक तीर्थकर सबधी और उन तीर्थकर के अवलम्बन से जिनालय सबधी वन्दना का वर्णन है वह वन्दना नाम का अङ्गबाह्य है । वर्ग - सबसे जघन्य गुण वाले प्रदेश के अविभागी प्रतिच्छेदो के समूह को वर्ग कहते है । वर्गणा - वर्गो के समूह को वर्गणा कहते है अथवा समान गुण वाले परमाणु - पिण्ड को वर्गणा कहते है । जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 213

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