Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 241
________________ यथाख्यात-चारित्र का घात करती है वह सज्वलन नामक कषाय है। सज्वलन कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप मे रहती है। सदंश-आहार के समय यदि साधु को कुत्ता आदि काट ले तो यह सदश नाम का अन्तराय है। सभिन्न-श्रोतृत्व-ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु श्रोत्र-इन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर दशो दिशाओ मे सख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र मे स्थित मनुष्य और तिर्यंचो के बहुत प्रकार के शब्दो को सुनकर उनका एक साथ प्रत्युत्तर देने मे समर्थ होता है उसे संभिन्न-श्रोतृत्व-ऋद्धि कहते हैं। सयत-सम्यग्दर्शन और ज्ञानपूर्वक जो हिसा आदि पाच पापो से पूर्णत विरक्त है, ऐसे महाव्रती साधु को सयत करते है। शुभक्रियाओ से युक्त होने पर वह प्रमत्त-सयत और आत्मलीन होने पर अप्रमत्त-सयत कहलाते है। सयतासयत-हिसा आदि पाच पापो का स्थूल रूप से त्याग करने वाले अणुव्रती श्रावक को सयतासयत कहते है। अथवा जो भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान मे श्रद्धा रखता है तथा त्रस जीवो की हिसा से विरत है लेकिन स्थावर जीवो के घात से विरत नहीं है उसे सयतासयत कहते हैं। इसका दूसरा नाम विरताविरत या देशव्रती भी है। संयम-धर्म-व्रत व समिति का पालन करना, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना तथा इन्द्रियो को वश मे रखना यह सयम-धर्म है। यह दो प्रकार का है-प्राणि-सयम और इन्द्रिय-सयम। सव जीवो की रक्षा करना प्राणि-सयम है तथा पाचो इन्द्रिय और मन जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 247

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