Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 243
________________ संवेगनी-कथा-पुण्य के फल की चर्चा करना सवेगनी-कथा है। यह कथा धर्म और धर्म के फल मे अनुराग उत्पन्न कराने वाली है। संवौषट्-जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते समय आह्वानन के लिए सवौषट् नामक बीजाक्षर बोला जाता है। यह आमत्रण-वाचक बीजाक्षर है। संव्यवहरण-दोष-साधु को आहार देने के लिए वर्तन आदि को शीघ्रता से बिना देखे उठाना सव्यवहरण-दोष है। संशय-वस्तु के विषय मे विरुद्ध अनेक धर्मो मे से किसी एक का निश्चय नही कर पाना और सदेह मे पड जाना सशय कहलाता है। जैसे-'यह सीप है या चादी है'-ऐसा संदेह होना। सशय-मिथ्यात्व-'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनो मिलकर मोक्षमार्ग है या नहीं'-इस प्रकार किसी एक पक्ष का निश्चय नहीं होना सशय- मिथ्यात्व है। अथवा देव और धर्म के स्वरूप मे 'यह ठीक है या नहीं' ऐसा निर्णय नहीं होना सशय-मिथ्यात्व है। संश्लेष-सम्बन्ध-जो स्निग्ध वस्तुओ का या स्निग्ध और रूक्ष वस्तुओ का परस्पर बध होता है वह सश्लेष सम्बन्ध है। जैसे-लाख व काष्ठ आदि का अथवा दूध और जल का परस्पर सश्लेष-सम्वन्ध है। इसी प्रकार अनादि काल से जीव और कर्म का परस्पर सश्लेष-सम्बन्ध संसक्त-जो साधु मत्र, वैद्यक और ज्योतिष से अपनी जीविका करता हे और राजा आदि की सेवा करता है उसे ससक्त कहते है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 249

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