Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 238
________________ है । अथवा 'स्व-पर' का भेद-विज्ञान होना सम्यग्दर्शन है। उत्पत्ति की अपक्षा निमगज और अधिगमज ऐसे सम्यग्दर्शन के दो भेद है। नय विभाग की अपेक्षा निश्चय ओर व्यवहार एसे सम्यग्दर्शन के दी भद है। मिथ्यात्व कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के तीन भेद है । सरस्वती - जिनवाणी को सरस्वती कहते है । सराग चारित्र - देखिए व्यवहार चारित्र | सराग- सम्यक्त्व- देखिए व्यवहार-सम्यग्दर्शन । सर्वज्ञ-सकल चराचर जगत का प्रत्यक्ष रूप से जानने वाले अर्हत व सिद्ध भगवान सर्वज्ञ कहलाते है । सर्वार्थसिद्धि-वैमानिक देवों के पाच अनुत्तर विमानों में से एक विमान का नाम सर्वार्थसिद्धि हे । यहा रहने वाले सभी देव अहमिद्र कहलाते है ओर एक भवावतारी होते हे अर्थात् मरणापरान्त एक मनुष्य भव पाकर मुक्त हो जाते है । सर्वोपधि ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के शरीर के सव अवयव ओषधि रूप हो जात हे वह सर्वोपधि ऋद्धि है । सल्लेखना - जीवन का अत निकट जानकर समतापूर्वक देह का परित्याग करना सल्लेखना कहलाती हे। सल्लेखना का शब्दिक अर्थ हे शरीर ओर कपाय को क्रमश क्षीण करना। इसे समाधि-मरण भी कहते है । सल्लेखना तीन प्रकार से होती हे -भक्त- प्रत्याख्यान, इगिनीमरण और पायोपगमन । 214 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश

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